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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहते हैं तो निःस्वार्थ मदद करनेवाले बहुत कम मिलते हैं। नमन करने जाते हैं तो सिर ही खो देना पड़ता है। ऐसा भी अनुभव हुआ है। अब हमें कोई सरल मार्ग दिखाई नहीं देता। हम आशा करते हैं कि आप हमें जरूर ही सरल मार्ग बतायेगे।

यह वर्णन यथार्थ है। बिना मानसिक बल प्राप्त किये ऐसे लाचार वातावरणमें से कोई नहीं उबर सकता। ये भाई जिस वर्गके हैं उसे आलस्य रूपी रोगने घेर रखा है। चालाकीसे द्रव्य प्राप्त करनेकी आदत पड़ जानेके कारण उन्हें मेहनत करके कमाना अच्छा नहीं मालूम होता। आवश्यकताएँ बढ़ गई हैं। मेहनत करके जो कुछ मिलता है उससे पूरा नहीं पड़ता। विवाह, मरण इत्यादिके कृत्रिम खर्च इतने बढ़ गये हैं कि बिना कर्ज लिये या बेजा तौरपर कमाये बिना चलाये ही नहीं जा सकते। खेती लायक शरीर नहीं रह गये हैं और उसके लिए पूँजी और आवश्यक जानकारी भी नहीं रही। इसलिए अब बच रहता है केवल चरखा। यहाँ चरखके मानी सिर्फ कातना नहीं समझना चाहिए, बल्कि रुईसे सम्बन्धित समस्त क्रियाएँ समझनी चाहिए। यही एक पेशा है जिसमें पूँजी और शारीरिक समृद्धि दोनोंकी जरूरत कम है। यदि हम रूढ़ आडम्बरसे बचते रहें और सादा रहन-सहन रखें तथा आलस्यका त्याग कर दें तो उसके द्वारा आजीविका मिल सकती है। पूर्वोक्त दोनों भाई यदि कुछ हिम्मत करें तो थोड़े ही प्रयत्नसे कातने और बुननेका काम भी सीख सकते हैं और फिर आगे चलकर वे बुनाईके कामसे ही अपनी आजीविका प्राप्त कर सकते हैं।

अभी लोगोंको खादीका शौक नहीं हुआ है इसलिए बुनाईके जरिये आमदनी कम होती है। लेकिन जब खादीका अच्छा प्रचार हो जायेगा तब हममें से अधिकतर लोग बुननेका काम करेंगे या खादीके नीतियुक्त व्यापारके द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करेंगे। यदि ये भाई कुछ पुरुषार्थ करनेकी हिम्मत दिखायें तो वे जाकर किसी खादी विद्यालयमें भरती हो जायें। काठियावाड़में ऐसी एक संस्था मढडामें है ही। अब तो काठियावाड़ राजकीय परिषद्ने चरखके प्रचारके कार्यको अपना प्रधान कार्य बना लिया है। इसलिए उसके मन्त्रीके साथ सलाह करके उन्हें अपना मार्ग ढूँढ़ लेना चाहिए। हमें स्मरण रखना चाहिए कि एक कमाये और दूसरे लोग बैठकर खायें यह इस धन्धेमें नहीं चल सकता।

खादी प्रदर्शनी

सूपा गुरुकुलके वार्षिकोत्सवके अवसरपर एक खादी प्रदर्शनी की गई थी। उसका विवरण देते हुए वहाँके खादी विभागके व्यवस्थापक लिखते हैं:[१]

यदि समय-समयपर ऐसी खादी प्रदर्शनियाँ होती रहें तो खादी और चरखके प्रचारपर उनका असर हुए बिना नहीं रहेगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २२-२-१९२५
 
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