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९५. तार: मोतीलाल नेहरूको[१]

२३ फरवरी, १९२५

लालाजीको तार भेजा है। अन्य सदस्योंकी राय लिये बिना मुल्तवी नहीं कर सकता। बैठक होनी चाहिए।

गांधी

अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० २४५६) से।

९६. पत्र: शौकत अलीको

साबरमती
२३ फरवरी, १९२५

प्यारे दोस्त और भाई,

मैंने आज कोहाट-सम्बन्धी अपने वक्तव्यपर आपकी टिप्पणी पढ़ी। आपकी स्पष्टवादितासे मेरे दिलमें आपके प्रति और भी ज्यादा प्रेम और सम्मान पैदा हो गया है। पर आपकी टिप्पणीसे यह जाहिर होता है कि कभी-कभी हम लोगोंकी तरह परस्पर इतने घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्ति भी पूरी तौरपर तटस्थ और निष्पक्ष रहनेके बावजूद, हूबहू एक-से तथ्योंके आधारपर भी, सर्वथा विपरीत निष्कर्षापर पहुँच जा सकते हैं। इससे मैं अपने विरोधियोंके प्रति पहलेसे ज्यादा उदार और अपने निर्णयोंके प्रति और अधिक अविश्वस्त बन गया हूँ। टिप्पणी दूसरी बार भी गौरसे पढ़ ली है और मैंने देखा है कि इस मामले में मेरे और आपके विचारोंके बीच बहुत ही चौड़ी खाई है। मैं कविताके प्रकाशनकी जोरदार शब्दोंमें निन्दा करनेको तैयार है, किन्तु लटमार तथा आगजनीको मैं माफ नहीं कर सकता। मैं आपकी इस रायकी पुष्टि नहीं करता कि उपद्रवोंका कारण पुस्तिका थी। उसकी पृष्ठभूमि तो पहले ही तैयार हो चुकी थी। मैं उन धर्म-परिवर्तनके मामलोंको उतना मामूली नहीं मान सकता जितना आप मानते हैं। मेरी रायमें खिलाफती लोगोंने अपने कर्त्तव्यकी बुरी तरह उपेक्षा की है और मौलवी अहमद गुलने निश्चय ही, उनपर जो विश्वास किया जाता था, उसका घात किया है।

मैं यह सब बातें आपकी रायको, यदि उसके बदले जानेका आप कोई कारण न मानें तो, बदलनेके लिए नहीं कह रहा हूँ। किन्तु मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि

 
  1. यह २३ फरवरीको मिले, मोतीलाल नेहरूके एक तारके उत्तरमें भेजा गया था। तारका मजमून लाला लाजपतरापके तार-जैसा ही था। देखिए "तार: लाजपतरायको",२३-२-१९२५ की पाद-टिप्पणी।