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भाषण: विवाहोत्सवपर

समझा दी जानी चाहिए। विवाहका अवसर आयेगा ही, आश्रमवासियोंको ऐसी बात तो कदापि नहीं सोचनी चाहिए। किन्तु यह अनिवार्य हो जाये तो बात दूसरी है। यह तो परमात्माके साथ आत्माका सम्बन्ध है। इसी कारण अंग्रेजीमें आत्मा स्त्रीलिंग है। जयदेवने भी आत्माकी कल्पना स्त्रीके रूपमें की है और कहा है कि आत्मा परमात्मासे रमण करती है। ऐसे दिव्य विवाहके बाद जगतमें कुछ करना बाकी नहीं रह जाता। किन्तु यदि वैसे दिव्य विवाहका अवसर न आये और तब इस [सांसारिक] विवाहका अवसर आ जाये तो कोई बात नहीं है। इसलिए [आश्रममें विवाहके] इस चौथे अवसरपर मुझे आपको यह बताना आवश्यक है कि विवाह भोगके निमित्त नहीं है, बल्कि त्यागके निमित्त है। आप आज यह निश्चय करते हैं कि यदि आपको रति-सुख भी लेना हो तो आपको उसमें भी मर्यादाका पालन करना है। हमारे समाजमें अव्यभिचारी-धर्म केवल स्त्रीके लिए ही रखा गया है, यद्यपि विवाह-संस्कारमें वर और वधूको जो पिछले चार ग्रास खिलाये जाते हैं वे दोनोंके माँस, अस्थि, और आत्माके एकीकरणके द्योतक होते हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि हम पुरुषके सम्बन्धमें ऐसी कल्पना नहीं करते। इसीलिए मुझे बताना पड़ता है कि आप मर्यादाका पालन करें और समझ लें कि रति-सुख केवल सन्तानोत्पत्तिके निमित्त होता है।

आजके भयंकर समयमें एक सन्तानको उत्पन्न करनेका अधिकार भी किसे है? हिन्दुस्तानमें असंख्य लोग ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं और यूरोपमें भी ऐसे बहुत लोग हैं। रोमन कैथोलिक सम्प्रदायमें बहुतसे प्रौढ़ स्त्री-पुरुष ऐसे होते हैं जो आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं। अठारह वर्षकी कन्या सांसारिक जीवनको छोड़ देती है और फिर आजन्म अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करती है। ऐसे स्त्री-पुरुषोंके लिए वहाँ मठ भी बने हुए हैं। आजके कठिन कालमें हिन्दुस्तानमें किसीको भी सन्तानोत्पत्तिका अधिकार नहीं है। कोई भी मनुष्य सामर्थ्यवान हुए बिना यह अधिकार नहीं पा सकता।

मेरी इच्छा थी कि विवाहकी विधि आश्रममें सम्पन्नकी जाये। इसका कारण यह था कि आश्रममें गुरु समस्त क्रियाएँ समझाकर पूरी करेगा और उससे यह बात समझमें आ सकेगी कि विवाहकी क्रियाका उद्देश्य भोग नहीं, बल्कि संयम है। इसलिए तुम दोनों इस अवसरपर विचार करना और उसे याद रखना। मैंने अपने ऊपर यही एक जिम्मेदारी ली है। मुझे इसपर पश्चात्ताप तो अवश्य ही नहीं होगा। इसका परिणाम शुभ ही होगा। वल्लभभाईसे मेरा क्या सम्बन्ध है, यह तो आप जानते ही हैं। उन्होंने अपनी इच्छासे आग्रह किया था कि यह विवाह मेरे हाथों सम्पन्न हो। काशीभाई भी इस विचारसे सहमत हो गये। क्या खर्च करना विवाहका अंग है? उसका अंग तो तपश्चर्या है। किन्तु आश्रमसे बाहर, अन्यत्र, बिना रुपया खर्च किये विवाह नहीं किया जा सकता। वहाँ बरात-जैसी रूढ़ियोंको छोड़कर विवाह करना असम्भव हो जाता है। इसीलिए विवाह-विधि यहाँ सम्पन्न की गई है। जो बीज आज बोया गया है यह कभी वृक्ष बनेगा। किन्तु तुम इसके अंकुरको पुष्ट करनेके लिए अपने माता-पिताओंके योग्य बनो और भोगवृत्तिका त्याग करो। खर्च न करने में पैसा बचानेकी वृत्ति नहीं थी-- लोभकी दृष्टि तो थी ही नहीं। किन्तु ऐसे खर्चका