पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/२२५

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टिप्पणियाँ१९५

माँगी थी तब भी उस आज्ञाका उल्लंघन करनेका मेरा कोई विचार न था। जैसा कि मैंने ८ मार्च, १९२४ के अपने लिखित वक्तव्यमें स्पष्ट किया था, मैंने आपके निर्णयको माननेका पूरा इरादा कर लिया था। मेरे मित्र मुझे बताते हैं कि वह पत्र आपको समयपर नहीं मिला, जिसमें इस दुःखजनक भ्रमको कदाचित् स्पष्ट कर दिया गया है। मैंने रवाना होनेसे पहले स्वयं इस मामलेमें कांग्रेसको स्थिति और श्री गांधीकी इच्छा जान ली थी। उनके अनुसार मुझे आपके आदेशका पालन करना था और भविष्यमें भी मेरी कार्यदिशा यही रहेगी; मैं इस आज्ञाका पालन तबतक करूँगा जबतक वह वापस नहीं ले ली जाती।" प्रशासक १२ तारीखको प्रातःकाल दिल्ली चले गये थे। वे १५ को वहाँसे लौटे और उन्हें तुरन्त जैतो जाना पड़ा। जैतोसे वे २१ की रातको लौटे। श्री गिडवानीको इस सजाको स्थगित करानेकी आज्ञा २२ तारीखको ४ बजे सुबह प्राप्त हो गई। श्री गिडवानी आज रात दिल्ली जा रहे हैं जहाँ वे हिन्दू कालेजके आचार्य के पास ठहरेंगे और महात्माजीकी हिदायतोंकी प्रतीक्षा करेंगे।

मुझे आचार्य गिडवानीकी रिहाईकी खबर पाकर खुशी हुई है क्योंकि उनकी कैदकी सजा बिलकुल अन्यायपूर्ण थी और अब परिमार्जन कर दिया गया है। सचमुच ही नाभाके अधिकारियोंके तरीके अजीब हैं। आचार्यसे जो आश्वासन उन्होंने अब लिया है उसे वे बहुत पहले ले सकते थे। असलमें जैसा कि इन स्तम्भोंमें बार-बार कहा जा चका है, आचार्य गिडवानी आज्ञा भंग करनेकी गरजसे नाभाकी सीमामें कदापि नहीं घुसे। वे तो वहाँ विशुद्ध और केवल मानवीय सेवा करने के उद्देश्यसे गये थे। लेकिन इस कैदकी सजासे न तो राष्ट्रकी कोई हानि हुई है और न आचार्य गिडवानीकी। यह तो स्वराज्यके लिए आवश्यक शिक्षण और स्वतन्त्रताका मूल्य है जो प्रत्येक व्यक्तिको चुकाना ही चाहिए।

संगसारी

मुझे एक लम्बा तार मिला है जो मुझे राष्ट्रीय कांग्रेसके अध्यक्षको हैसियतसे भेजा गया है। यह तार अफगानिस्तानमें अहमदिया फिरकेके दो सदस्योंके पत्थरोंसे मार दिये जाने के बारेमें है। जब स्वर्गीय नियामतुल्लाह खाँको भयंकर दण्ड दिया गया था तब मैंने जान-बूझकर उसपर कोई टिप्पणी नहीं की थी; लेकिन अब इन घटनाओंकी, जिनकी खबर मुझे अभी मिली है, उपेक्षा करनेका साहस मुझमें नहीं है--खास तौरसे तब जब मुझसे मत प्रकट करनेका अनुरोध निजी तौरपर किया गया है। मुझे मालूम हुआ है कि 'कुरान' में केवल कुछ अवस्थाओंमें ही संगसारीकी हिदायत दी गई है, किन्तु जिन मामलोंपर हम विचार कर रहे हैं उनपर ये अवस्थाएँ। लागू नहीं होतीं। मैं मनुष्य हूँ और ईश्वरसे डरता हूँ। इस रूपमें किन्हीं भी स्थितियोंमें ऐसे तरीकोंकी नैतिकतापर मुझे शंका करनी चाहिए। नबीके जीवनकालमें और उस युगमें चाहे कुछ भी आवश्यक या विहित रहा हो, 'कुरान' में इसका उल्लेख होने मात्रसे इस विशेष दण्डका समर्थन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक धर्मके प्रत्येक