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कांग्रेस और ईश्वर२१९

है। वह बुद्धि और वाणीसे परे है। हम स्वयं जितना अपनेको जानते हैं, उससे कहीं अधिक वह हमें और हमारे दिलोंको जानता है। जैसा हम कहते हैं, वैसा ही वह हमें नहीं मानता। क्योंकि वह जानता है कि जो हम जबानसे कहते हैं अक्सर वही हमारा भाव नहीं होता; और कुछ लोग ऐसा जान-बूझकर करते हैं तो कुछ अनजाने ही। ईश्वर उन लोगोंके लिए एक व्यक्ति ही है जो उसे व्यक्ति-रूपमें हाजिर देखना चाहते हैं। जो उसका स्पर्श करना चाहते हैं, उनके लिए वह साकार है। वह पवित्रसे पवित्र तत्व है। जिन्हें उसमें श्रद्धा है उन्हीं के लिए उसका अस्तित्व है। विभिन्न लोगोंके लिए उसके विभिन्न रूप है। वह हममें व्याप्त है और फिर भी हमसे परे है। "ईश्वर" शब्द कांग्रेससे निकाल दिया जा सकता है, लेकिन खुद ईश्वरको तो कोई कहींसे नहीं निकाल सकता। ईश्वरके नामपर की गई प्रतिज्ञा और केवल प्रतिज्ञा यदि एक वस्तु नहीं है तो फिर प्रतिज्ञा होगी क्या चीज? अन्तरात्मा तो निश्चय ही ईश्वर शब्दका एक बड़ा ही अपर्याप्त और जबरदस्ती बनाया हुआ पर्याय है। उसके नामपर भयंकर अनीतियुक्त काम किये गये हैं और अमानुष अत्याचार भी हुए हैं, लेकिन इससे उसका अस्तित्व नहीं मिट सकता। वह बड़ा सहनशील है, वह बड़ा धैर्यवान् है, लेकिन वह रुद्र भी है। उसका व्यक्तित्व इस दुनियामें और भविष्यकी दुनियामें भी सबसे अधिक काम करानेवाली ताकत है। जैसा हम अपने पड़ोसी--मनुष्य और पशु--दोनोंके साथ बरताव करते हैं वैसा ही बरताव वह हमारे साथ भी करता है। उसके सामने अज्ञानकी दलील नहीं चल सकती। लेकिन यह सब होनेपर भी वह बड़ा रहमदिल है, क्योंकि वह हमें पश्चात्ताप करनेके लिए मौका देता है। दुनियामें सबसे बड़ा प्रजातन्त्रवादी वही है; क्योंकि वह बरे-भलेको पस करनेके लिए हमें स्वतन्त्र छोड़ देता है। वह सबसे बड़ा जालिम है, क्योंकि वह अक्सर हमारे मुँह तक आये हुए कौरको छीन लेता है और इच्छा-स्वातन्त्र्यकी ओटमें छूट लेनेको बहुत ही कम गुंजाइश देता है और हमारी लाचारीपर हँसता है। यह सब हिन्दू धर्मके अनुसार उसकी लीला है, उसकी माया है। हम कुछ नहीं हैं सिर्फ वही है और अगर हम हों तो हमें सदा उसके गुणोंका गान करना चाहिए और उसकी इच्छाके अनुसार चलना चाहिए। आइए, उसकी बंसीकी धुनपर हम नाचें। सब अच्छा ही होगा।

लेखकने मेरी एक पुस्तिका 'नीतिधर्म' का भी जिक्र किया है। सो पाठकोंका ध्यान इस बातकी ओर खींचना जरूरी है कि लेखकने जिसका उल्लेख किया है वह अंग्रेजी पुस्तक है। मूल पुस्तक गुजरातीमें लिखी गई है। और गुजराती पुस्तिकाकी भूमिकामें यह बात साफ तौरपर कही गई है कि यह मौलिक पुस्तक नहीं है। बल्कि अमरीकामें प्रकाशित 'नैतिक-धर्म' नामक एक पुस्तकके आधारपर लिखी गई है। यह अनुवाद यरवदा जेलमें मेरी नजरोंसे गुजरा और मुझे यह देखकर अफसोस हुआ कि उसमें मूल पुस्तकका कहीं उल्लेख नहीं है। मुझे मालूम हुआ है कि खुद अनुवादकने भी गुजराती नहीं बल्कि उसके हिन्दी अनुवादका अनुवाद किया है। इस तरह उसके अंग्रेजी अनुवादको एक 'द्राविड़ी प्राणायाम' ही समझिए। उस मूल