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मेरा अपराध

परे हैं। अच्छा होता यदि भारतके नेताकी हैसियतसे आपने जो अनेक काम किये हैं उनमें 'कुरान' शरीफकी शिक्षाओंकी प्रतिकूल आलोचना करनेका नाजुक काम आपने न किया होता।

मौलाना साहबने मेरी उस टिप्पणीपर जो अर्थ घटाया है वह उसपर घटता नहीं है। मैंने 'कुरान' शरीफके उपदेशोंकी प्रतिकूल (या अन्य किसी ढंगकी) आलोचना नहीं की है। मैंने उपदेशकोंकी अर्थात् उसके भाष्यकारोंकी आलोचना जरूर की है। और यह जानते हए की है कि वे इस सजाका समर्थन किये बिना नहीं रहेंगे। मुझे भी 'कुरान' और इस्लामकी तवारीखका इतना इल्म जरूर है कि मैं यह कह सकता हूँ कि 'कुरान' के ऐसे कितने ही भाष्यकार हुए हैं जिन्होंने अपने पूर्व कल्पित विचारोंके अनुकूल उसका अर्थ लगाया है। इसमें मेरा उद्देश्य ऐसे किसी अर्थको माननेके विषयमें चेतावनी दे देनेका था। लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि खुद 'कुरान की शिक्षाएँ भी आलोचनासे मुक्त नहीं रह सकतीं। आलोचनासे तो हरएक सच्चे धर्मग्रन्थको लाभ ही होता है। आखिर अपने तर्क-बलके अतिरिक्त हमारे पास यह बतानेवाली और कोई चीज नहीं है जो हमें बताये कि क्या अपौरुषेय (इल्हामी) है और क्या नहीं। शुरूमें जिन मुसलमानोंने इस्लामको अख्तियार किया उन्होंने उसे इसलिए अख्तियार नहीं किया कि वे इसे इल्हामी मानते थे बल्कि इसलिए कि वह उनकी सीधी-सादी समझमें बैठ गया था। मौलाना साहबका यह कहना बिलकुल ठीक है कि भूल एक सापेक्ष शब्द है। लेकिन हकीकतमें देखा जाये तो कुछ बातें तो ऐसी है ही जिन्हें सारा संसार गलत मानता है। मेरे खयालसे यन्त्रणा देकर प्राण लेना ऐसी ही गलत चीज है। मौलाना साहब द्वारा उल्लिखित मेरी तीन बातोंमें मैंने सिर्फ अर्थ लगानेकी तीन विधियोंका जिक्र किया है और उसके खिलाफ कोई उँगली नहीं उठा सकता। हर हालतमें मैं तो उन्हींका पाबन्द हूँ। और अगर मुझे इस बातको जाहिर करनेकी पूरी आजादी है कि इस्लामकी शरीयतके मुताबिक धर्मपतित लोग संगसारीकी सजाके पात्र हैं या नहीं, तब मैं इस बातपर भी क्यों न अपनी राय जाहिर करूँ कि शरीयतके अनुसार संगसारीकी सजा दी भी जा सकती है या नहीं। मौलाना साहबने इस्लाम सम्बन्धी गैर-मुस्लिमकी आलोचनाको बरदाश्त न करनेको वृत्ति जाहिर की है। मैं उन्हें सूचित करता हूँ कि प्राणप्रिय वस्तुओंकी भी आलोचनाको बरदाश्त न करना सार्वजनिक और सामुदायिक जीवनके विकासके लिए हितकर नहीं है। यदि आलोचना बेजा भी हो तो उससे निश्चय ही इस्लामको डरनेकी आवश्यकता नहीं है। इसलिए मैं मौलाना साहबसे कहूँगा कि काबुलकी इस दुर्घटनामें जो जबर्दस्त प्रश्न जुड़े हुए हैं उनपर मेरी आलोचनाके प्रकाशमें विशद दृष्टिसे चिन्तन करना उचित होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ५-३-१९२५