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१३३. टिप्पणियाँ---२

मरुस्थलमें हरियाली

खद्दरके सम्बन्धमें बम्बईके खिलाफ जिस समय शिकायतें आ रही है उस समय यदि यह मालूम हो कि स्त्रियोंका एक मण्डल वहाँ चुपचाप खादीका अच्छा प्रचार कर रहा है तो यह एक खुशीकी बात मानी जायेगी। मेरे सामने एक पत्र पड़ा है। उसमें लिखा है:

इस महीने में २,०००) से ज्यादा की खादीकी बनियान श्रमिक-निकाय और स्कूलों में बेची जा चुकी हैं और कुछ भावनगरमें भी भेजी गई हैं। इसमें रोजाना मामूली बिक्रीके दाम और जोड़ दीजिए। सेवासदनमें एक नया वर्ग इस शर्तपर खोला जा रहा है कि उसमें वे ही बच्चे दाखिल किये जायेंगे जो रोज थोड़ा-बहुत कातनेके लिए तैयार हैं। कातना भली-भाँति सीख लेनेके बाद उन्हें माहवार २,००० गज सूत देना होगा। इसका असर मौजूदा वर्गोपर भी पड़ा है। कुछ वर्गोकी लड़कियाँ कातना शुरू करनेवाली हैं।

एक-दूसरे मित्र ठीक कहते हैं कि यह नहीं कि लोगोंमें सहानुभूति नहीं है। उसका अभाव तो नेताओं और कार्यकर्त्ताओंमें ही है। वे इसके सन्देशके प्रचारके लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अभी खादीका चाव लोगोंमें इतना नहीं बढ़ा है कि वे समय निकालकर स्वयं खादी खरीदने जायें। लेकिन यदि उनके दरवाजोंपर कोई खादी लेकर जाये तो वे उसे खुशीसे खरीद लेंगे। फसल तो शानदार खड़ी है, काटनेवाले नहीं मिलते। हरएक कार्यकर्त्ता यह निश्चय क्यों न कर ले कि वह हर महीनेमें एक निश्चित परिमाणमें खादी बेचेगा। मैं यह जानता हूँ कि खादी बनाने में हमने काफी प्रगति कर ली है और शौकीन लोगोंकी रुचिके अनुरूप खादी भी तैयार होने लगी है। मुझे एक रोजएक धनी दुल्हनका जामा दिखाया गया। वह साराकासारा खादीका बना हुआ था और उसमें सोने चाँदीकी जरीका काम किया गया था। श्रीमन्तोंकी दृष्टिसे भी उसमें कोई कसर नहीं थी। अब जैसी चाहें वैसी खादीकी साड़ियाँ बन सकती हैं। पाणिग्रहणके समय ओढ़नेके लिए आवश्यक रंगीन दुशाला भी खादीका ही बनाया गया था। इसलिए अब कोई यह बहाना नहीं बना सकता कि जैसी चाहिए वैसी बारीक और रंगीन खादी नहीं मिलती है इसीलिए हम खादी नहीं पहनते। क्या हिन्दुस्तानके सभी कार्यकर्त्ता, जिन बहनोंके कार्यके प्रति मैंने उनका ध्यान दिलाया है, उनके कार्यपर गौर करेंगे और उनका अनुकरण करेंगे?

फरीदपुर सम्मेलन

मेरे पास तारपर-तार आ रहे हैं कि मैं बंगाल प्रान्तीय सम्मेलनमें उपस्थित होऊँ। पर अत्यन्त खेद है कि मैं उसमें शरीक नहीं हो पाऊँगा। मेरी भी वहाँ

१. सारस्वत भवन; देखिए "एक भूल सुधार", २६-३-१९२५।