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भेंट: पत्र-प्रतिनिधियोंसे

आपकी धर्मपत्नीकी तबीयत अच्छी नहि है सुनकर मुझे खेद होता है। सब हाल ठीक जाननेके सिवा कुछ कहना मुश्केल है। हां, इतना तो सामान्य है कि दर्दके वखत खाना कमसे-कम और ज्यादेतर दूध ही और फल। हमारी आदत कमरा बंध करके सोनेकी है। दर्दके समय स्वच्छ हवाकी ज्यादह आवश्यकता है। परंतु मेरी सब बातें निकम्मी मानता हूं। आपके वैद्य या दाक्तर जो कुछ कहें वही सही समजा जाय।

मैं आज वाईकोम जा रहा है। शायद इस महीनेकी आखर तक मद्रास इलाके रहना होगा। आश्रममें २६-२७ मार्चको पहोंचुंगा।

आपका,

मोहनदास गांधी

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६११८) से।

सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला

१४०. भेंट: पत्र-प्रतिनिधियोंसे

बम्बई

५ मार्च, १९२५

मेरे विचार अब भी वही रहते हैं जो पहले थे। एकता अपरिहार्य है। मेरे अनुमानसे जितना समय लगना था, यह उससे ज्यादा समय लेगी। विद्वेषकी आँधी जोर पकड़ रही है। आशा है कि तूफानके बीच भी हममें से कुछ लोग अविचलित ही रहेंगे। मैंने तो जीतने की कसम ले ली है। मैं हिन्दू हूँ; मुसलमानोंके साथ झगड़ा नहीं करूँगा। न मैं ऐसी धमकियोंसे डरूँगा जैसे कि कहा जाता है पेशावरमें दी गई हैं। मैं मौलाना ज़फर अली खाँ और डा० किचलूसे पत्र-व्यवहार कर रहा हूँ। मुझे आशा है, उनके बारेमें गलत रिपोर्ट दी गई है। मैं तो तब भी आवेशमें नहीं आऊँगा, यदि उन्होंने वह सब-कुछ कहा हो जो उनके द्वारा कथित माना जा रहा है। मैं बदला लेनेकी उपयोगितापर विश्वास नहीं करता। मैं हिन्दुओंसे जोर देकर कहूँगा कि वे ऐसी घटनाओंपर क्रुद्ध न हों। लेकिन मैं देखता हूँ कि निकट भविष्यमें कोई समझौता होने की आशा नहीं है। सौदेबाजीसे कोई स्थायी समझौता नहीं हो सकता। नौकरशाहीके साथ सत्तामें साझीदार होनेके लिए संघर्ष करना मुझे पसन्द आ ही नहीं सकता। इस प्रकारके संघर्षसे केवल ब्रिटिश प्रभुत्वको ही बल मिलेगा। समान साझीदार होने पर मैं ब्रिटिश सहयोगकी कद्र करूँगा, किन्तु उनकी प्रभुताकी अपेक्षा मैं अराजकताको पसन्द करूँगा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि, इस प्रभुताके रहते हुए हम कभी एक राष्ट्र नहीं बन सकते। हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच खुलकर लड़ाई हो चुकनेपर भी मुझे उनमें पारस्परिक समझौता होनेकी आशा है, किन्तु ब्रिटिश शस्त्रोंके प्रतिबन्धमें शान्तिपूर्वक रहते हुए भी मुझे उनके बीच मेल-मिलापकी कोई आशा नहीं। हमें अपनेको अनुशासनमें रखना सीखना चाहिए। इसलिए मेरा आदर्शवाक्य है : "यदि एकता सम्भव