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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमारे लिए ब्रिटेनके पत्रोंके माध्यमसे प्रचार करना असम्भव है, ब्रिटेनके पत्र साम्राज्यीय उद्देश्योंको पुष्ट करनेके लिए कृत-संकल्प हैं। हम उन्हें भारतकी वास्तविक स्थिति बतानेके लिए कितने ही तथ्य क्यों न दें, वे उन्हें प्रकाशित ही न करेंगे। एक बार एक व्यक्तिने ब्रिटेनके एक पत्रमें विज्ञापनके रूपमें प्रकाशनार्थ तथ्यात्मक सामग्री छपाईके खर्च के साथ भेजी थी; किन्तु पत्रने उसे यह कहकर लौटा दिया कि वह उसे प्रकाशित नहीं कर सकता।

क्या हम इंग्लैंडकी आम जनतामें अपने विचारोंका प्रचार नहीं कर सकते?

अंग्रेज ऐसे नहीं हैं कि वे हमारे वक्ताओंके व्यक्त किये हुए विचारोंपर विश्वास कर लें। उनका स्वभाव ऐसा है कि वे किसी देशकी बुरी स्थितिको केवल दो लक्षणोंके उपस्थित होनेपर ही अनुभव कर सकते हैं--या तो वहाँ विद्रोह कर दिया जाये या उस देशकी सरकारसे असहयोगका जन-आन्दोलन आरम्भ कर दिया जाये। एक बार बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इंग्लैंड गये थे। वहाँ उन्होंने बड़ी योग्यतासे भारतकी दुर्दशाका चित्र प्रस्तुत किया। कहा जाता है कि इसपर एक अंग्रेज सज्जनने उनसे पूछा, "यदि आप जो कुछ कहते हैं वह सत्य है तो आपके देशवासी विद्रोह क्यों नहीं कर देते?" यह मनोदशा वहाँ अभीतक कायम है।

कहा जाता है कि सुधार-जाँच समितिके बहुमतकी रिपोर्ट प्रतिगामी है। क्या समितिके निष्कर्षोकी सरकार द्वारा स्वीकृतिके विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन करनकी आवश्यकता नहीं है?

जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैं जनसाधारणके विचारोंको समझनेका पूरा-पूरा प्रयत्न करता हूँ। मैं नहीं समझता कि इस समय मुडीमैन-समितिके' प्रतिगामी निष्कर्षासे, या सरकारकी दमन कार्रवाइयोंसे या उसके आतंककारी शासकोंसे--इनमें से किसी भी तत्त्वसे--हमारे देशवासियोंकी भावनाएं जागृत हो सकती हैं। जहाँतक मैं देख सकता हूँ, मुझे तो देशमें सर्वत्र ही लोगोंमें निराशाका भाव व्याप्त दिखाई देता है।

तब आप लोगोंकी इस निराशाको दूर करने और उनमें उत्साहका संचार करने के लिए क्या सुझाव देते हैं?

लोगोंमें उचित भावना उत्पन्न करने के लिए चरखा चलाने और सूत कातनेसे अधिक अच्छा कोई दूसरा उपाय नहीं है। जनसाधारणकी--गरीबोंकी--पहली माँग अन्न है और उन्हें अन्न--केवल चरखा ही दे सकता है। वह उनके लिए हितका एक जबरदस्त साधन है।

१. सर अलेक्जेंडर मुडीमैनकी अध्यक्षतामें, भारत शासन कानूनपर अधिक अच्छा अमल कैसे किया जा सकता है, इस सम्बन्धमें जाँच करने और रिपोर्ट देनेके लिए नियुक्त की गई सरकारी-समिति। इसकी रिपोर्ट मार्च १९२५ में प्रकाशित हुई थी। इसका बहुमत---जिसमें मुडीमैन और तीन अन्य सदस्य शामिल थे---इस पक्षमें था कि निश्चित विचार-मर्यादाके अन्तर्गत वे कानूनके उद्देश्यको ध्यानमें रखते हुए ऐसे उपायोंकी सिफारिश नहीं कर सकते किन्तु उन्होंने कानूनके सफलतापूर्ण कार्यान्वयनकी प्रशंसा की थी। इसके विपरीत अल्पमत समितिने यह मत व्यक्त किया था कि यह द्वैध शासन प्रणालीपर आधारित संविधान असफल रहा है और इससे भविष्य में अधिक अच्छे परिणाम नहीं निकल सकते। देखिए इंडिया


इन १९२५-२६।