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१४७. भेंट : 'स्वराज्य' के प्रतिनिधिसे

मद्रास

७ मार्च, १९२५

'स्वराज्य' के प्रतिनिधि द्वारा यह प्रश्न करने पर कि क्या स्वराज्यवादियोंके पद स्वीकार करनेसे कांग्रेस और स्वराज्यवादियोंके आपसी सम्बन्धपर प्रभाव पड़ेगा, महात्माजीने निश्चयात्मक स्वरमें उत्तर दिया, "नहीं, कांग्रेसने स्वराज्यवादियोंको परिषदोंमें उनकी गतिविधियोंके लिए पूर्णाधिकार दे दिया है।"

निर्वाचित हिन्दू सदस्योंके विरोध करने के बावजूद वाइसराय द्वारा हिन्दू धर्मस्व अधिनियमको स्वीकृति देनेकी ओर ध्यान खींचनेपर महात्माजीने कहा कि मैंने अधिनियमका या उसके अभिप्रायोंका अध्ययन नहीं किया है। यदि मेरे लिए नितान्त आवश्यक हो जायेगा तो मैं अपना ध्यान उस ओर लगाऊँगा और समय आनेपर उसके बारेमें अपने विचार प्रकट करूँगा।

यह सवाल करनेपर कि क्या तमिलनाड-कांग्रेसके अध्यक्ष द्वारा अधिनियमका खुलेआम समर्थन करना कांग्रेसकी नीतिके साथ मेल खाता है, महात्माजीने उत्तर दिया कि मैं ऐसे किसी कांग्रेसी द्वारा अधिनियमका समर्थन करने में कोई आपत्ति नहीं देखता जिसने परिषदोंमें प्रवेशके सिद्धान्तको भी स्वीकार किया हो।

एक अन्य प्रश्नका उत्तर देते हुए महात्माजीने कहा कि यदि हो सका तो वाइकोम जानेके सुअवसरका लाभ उठाकर में राज्य-संरक्षिका महारानीसे अवश्य मिलूँगा।

उन्होंने दुःखके साथ यह स्वीकार किया कि उत्तरमें, जहाँ वे अभी हाल गये हुए थे, हिन्दू-मुस्लिम एकताके आसार बहुत उज्ज्वल नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मैंने बम्बई जाते हुए इस विषयपर डा० किचलू और अन्य मुस्लिम नेताओंको लिखा था और मैं उनसे उत्तरको प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मुझे यह देखकर सन्तोष होता है कि इस प्रान्तमें दोनों जातियोंके बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं।

दक्षिणको में केवल एक सन्देश दे सकता है और वह यह कि आप लोग चरखा कातें।

[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, १२-३-१९२५