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भाषण: मद्रासकी सार्वजनिक सभामें

या नशेसे मिलनेवाली चीज नहीं है। स्वराज्य सुव्यवस्थित आचरणसे स्वयमेव प्रतिफलित होगा और होगा हमारे पारस्परिक सहयोग, कठोर अनुशासन और आज्ञापालन, सतत उत्साह और खुशीसे किये हुए सदाशयतापूर्ण सोचे-समझे बलिदानसे; वह सारे राष्ट्र के मिले-जुले उद्योग और श्रमसे तथा जनताकी विवेकपूर्ण जागृतिसे प्राप्त होगा। भारतके दस-बीस नगरोंके सम्मिलित प्रयत्नोंसे वह नहीं मिल सकता। हम लोगोंको, जिनमें कुछ हदतक राजनीतिक चेतना आ गई है और जो अपने देशको अपना देश होनेके नाते प्रेम करने लगे हैं, जनताके बीच फैल जाना चाहिए और गाँवोंमें बस जाना चाहिए।

मैंने हिन्दू-मुस्लिम एकताके बारेमें बम्बईमें जो-कुछ कहा है सो आपको विदित है। आप लोगोंमें से जो लोग कातना जानते हैं, वे उस उपमाको समझ जायेंगे, जिसे मैं देने जा रहा हूँ। आपमें जो लोग अच्छा कातना नहीं जानते उन्हें अनुभव हुआ होगा कि जब वे तकुएसे सूत निकालते हैं तब सूत कभी-कभी उलझ जाता है और फिर जितना ही आप उसे सुलझानेकी कोशिश करते हैं, वह उतना ही उलझता जाता है। किन्तु एक कुशल कातनेवाला उस उलझे हुए सूतको खीझ जानेपर एक तरफ रख देता है और खीझ मिट जानेपर उसे सुलझानेकी कोशिश करता है। ऐसा ही हिन्दू-मुस्लिम समस्याके साथ समझिए। यह समस्या इस समय बुरी तरह उलझ गई है। मैं सोचता हूँ कि मैं कातनेमें माहिर हूँ; उसी प्रकार मैंने यह भी सोचा था कि मैं ऐसी उलझनोंको सुलझाने में भी माहिर हूँ। फिलहाल मैने इस समस्याको ताकपर रख दिया है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे इसके सुलझनेकी कोई आशा नहीं रही है। जबतक मुझे इसका कोई हल नहीं मिलता तबतक मेरा मस्तिष्क इस समस्यापर विचार करता ही रहेगा। किन्तु मुझे यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि मैं कोई ऐसा व्यवहार्य हल, जिसकी आप आशा करते हैं, फिलहाल प्रस्तुत नहीं कर सकता। किन्तु मैं आपके सामने एक छोटा-सा विचार रखना चाहूँगा। आपमें से जिन लोगोंको हिन्दू या मुसलमानोंसे, व्यवहार करना होता है, उन्हें एक-दूसरेके प्रति अपने व्यवहारमें खरा, ईमानदार और निडर होना चाहिए। यद्यपि अभी आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती फिर भी आप अपने विश्वासको न छोड़ें, आपसमें प्रेमका व्यवहार करें और इस बातको याद रखें कि चाहे हिन्दूका शरीर हो, चाहे मुसलमानका, उसमें एक ही दिव्यात्मा विराजमान है और यह सोचकर एक-दूसरेके प्रति उदार रहनेकी कोशिश करें।

यह आवश्यक नहीं है कि मैं आपसे अस्पृश्यताके बारेमें कुछ कहूँ क्योंकि उसकी स्थितिका आपको पूरा-पूरा ज्ञान है। किन्तु मेरी समझमें, और शायद आप भी इस बातसे सहमत होंगे कि हमने विगत चार वर्षोंके दौरान इस दिशामें जबरदस्त प्रगति की है। मैं जानता हूँ कि अपने उद्देश्यकी पूतिके लिए यह काफी नहीं है; किन्तु हममें इतनी आशा जागृत करनेके लिए काफी है कि हमारे जीवनकालमें ही हिन्दू धर्मसे यह कलंक मिट जायेगा।

अन्तमें चरखा और खद्दरका उल्लेख करना शेष रह गया है जो कि कम महत्वकी बातें नहीं हैं। मैं जानता हूँ कि उस दिशामें भी हमने थोड़ा-बहुत काम किया