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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। फिर भी खादीकी जो हालत आज है उसके लिए हमारा आलस्य और अज्ञान ही उत्तरदायी है। हिन्दू-मुस्लिम समस्याकी तरह कटुता और द्वेषभावनाका यहाँ कोई सवाल नहीं है और न अस्पृश्यताकी तरह धार्मिक असहिष्णुताका प्रश्न है। मुझे अभी तक एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला जो यह कहे कि चरखा चलाना या उससे उत्पन्न खद्दरको पहनना उसकी अन्तरात्माके विरुद्ध है। यह तो अर्थशास्त्रका ककहरामात्र है कि यदि भारतके उन लाखों लोगोंकी झोपड़ियोंमें जो वर्ष-भरमें कमसे-कम चार महीने खाली बैठे रहते हैं, चरखा पहुँचा दिया जाये तो वह उन चार महीनोंका सदपयोग कर सकेंगे। वे उससे जो दो पैसे रोजाना कमायेंगे उनका आपके और मेरे लिए चाहे कुछ मूल्य न हो; किन्तु उनके लिए तो वे एक नियामत ही ठहरेंगे। यह समझ लेना तो बहुत ही आसान है कि यदि हम चाहते हैं कि हमारे देशवासी चरखा चलायें तो उनकी झोपड़ियोंमें आशाका सन्देश पहुँचाने के पहले हमें इस मृतप्राय कलाको सीख लेना होगा। आप यह मानेंगे कि यह बात तो एक बच्चेकी समझमें भी आ सकती है कि जब सारी जनता चरखा चलायेगी और खद्दर तैयार करेगी तो छोटे-बड़े हरएकको खद्दर ही पहनना और काममें लाना चाहिए। मुझे यह कहते हुए खेद होता है कि यदि हम इतने नाजुक बन गये हैं कि मोटा खद्दर नहीं पहन सकते तो मैं कहे रखता हूँ और आप इसकी गाँठ बाँध लीजिए कि स्वराज्य इस पीढ़ीके भाग्यमें नहीं है। स्वराज्य एक मजबूत पेड़ है जो धीरे-धीरे जड़ पकड़ता और पल्लवित होता है, और इसीलिए उसे साहसी स्त्री-पुरुषोंके धैर्यके साथ किये गये परिश्रमकी आवश्यकता होती है। इसलिए आपको वही करना होगा जो पुराने समयमें रानी एलिजाबेथने अपने देशके लिए किया था। उसने हॉलैंडसे नरम कपड़े के आयातपर पाबन्दी लगा दी थी और वह स्वयं अपने प्यारे देश, इंग्लैंडका बुना हुआ मोटा कपड़ा पहनने लगी थी। और उसने यही सारे राष्ट्रके लिए अनिवार्य कर दिया था। आपको खद्दर और चरखेके प्रश्नकी गुत्थियोंमें उलझनेकी जरूरत नहीं। आपको यह सोचनेकी भी जरूरत नहीं कि यह स्वयं स्वराज्य लानेमें समर्थ है या नहीं। आप तो इसे अपने और मेरे लिए एक साधारण और सरल कसौटी ही रहने दें। क्या हम आधा घंटा राष्ट्रको देने और यथाशक्ति कताई करके उसका ऋण चुकाने तथा अपनको देशके गरीबसे-गरीब लोगोंके साथ एकरूप करनेके लिए तैयार हैं, या नहीं? हम ऐसा कपड़ा पहननेके लिए तैयार हैं या नहीं जिसे हमारी बहनों और भाइयोंने काता और बुना हो? इनमें से क्या ठीक है: हमारा प्रतिगज कैलिकोके लिए १ या २ आने मैचेस्टर या अहमदाबादको भेजना अथवा एक या दो आने मद्रासके पासकी ही इनझोपड़ियों-में भेजना--बोलिए, आपको क्या पसन्द है? अपने पास-पड़ोसके उन लोगोंके बारेमें जिन्हें खानेके लाले पड़े हैं, सहानुभूतिके साथ सोचने लायक देशप्रेम आपमें है या नहीं?

वैसे तो मैं बड़ा धैर्य रखनेवाला आदमी हूँ किन्तु फिर भी इस बातके अत्यन्त बोधगम्य होने के बावजूद कि एक गज खादी खरीदनेका अर्थ किसी गरीबसे-गरीब आदमीकी जेबमें कमसे-कम दो आने पहुँचाना है, चतुर व्यक्ति मेरे पास आकर तरह तरहकी बारीकियाँ निकालते हैं; तब मेरा धीरज छूट जाता है। मेरे पास अपने देशको