देनेके लिए यही एक चीज़ है; और मेरे पास इससे अच्छा सन्देश है ही नहीं। यदि इस सन्देशका एक प्रचारक मैं ही बच रहूँ और कोई सुननेवाला भी न हो तो भी में अपनी अन्तिम साँसतक इसी सन्देशकी रट लगाता रहूँगा।
आप सविनय अवज्ञाके इच्छुक हैं। मैं भी इसे चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि सशस्त्र विद्रोहका एक यही विकल्प है। यह हमारी शक्तिकी वास्तविक कसौटी है। किन्तु अवज्ञाके सविनय होनेके लिए अनुशासन, विचार, सावधानी तथा सतर्कताकी आवश्यकता है। सविनय अवज्ञा और आवेश तथा उत्तेजनामें बड़ा बैर है। फिर मैं यह भी जानता हूँ कि चरखे और खद्दरका उचित एवं सावधानीके साथ संगठन किये बिना सविनय अवज्ञा सम्भव ही नहीं है। जैसा कि लालाजीने कहा है और ठीक कहा है कि हम स्वराज्य तो प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उस हालतमें उसे कायम रखनेकी शक्ति हममें नहीं होगी। यह बात उन्होंने किसी और अवसरपर, किसी और विषयके सम्बन्धमें कही थी, किन्तु उनका वह कथन यदि अधिक नहीं तो उतने ही जोरसे सविनय अवज्ञापर भी लागू होता है।
आपने मेरी बात अत्यन्त धैर्य और शिष्टताके साथ सुनी इसलिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मुझे आशा करनी चाहिए कि यदि मेरी बात आपको ठीक ऊँची हो तो आप उसे कार्यरूपमें परिणत करनेकी कृपा भी करेंगे। ईश्वर आपको इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिए आवश्यक बल और बुद्धि दे। (जोरकी हर्षध्वनि)।
अन्तमें गांधीजीने प्रार्थना की कि सब लोग अपने स्थानोंपर बैठे रहें और मुझे बिना किसी बाधाके इस सभासे जाने दें।
१५०. काठियावाड़के संस्मरण--२
दूसरे राज्य
मुझे पता चला है कि जिस प्रकार राजकोटके ठाकुर साहब लोकप्रिय है उसी प्रकार पोरबन्दर, वाँकानेर और बढवानके नरेश भी हैं। ऐसा लगता है कि ये चारों अपनी-अपनी प्रजाका हित चाहते हैं। मेरे दिलपर यह छाप पड़ी कि ये सब राजा प्रजाको सन्तुष्ट करनेकी कोशिश कर रहे हैं। पर मैं एक बात कहे बिना नहीं रह सकता। हर राज्यमें न्यूनाधिक परिमाणमें राज्यका खर्च आमदनीसे बहुत बढ़ा हुआ दिखाई दिया। मेरा विश्वास है कि जबतक राजा अपने खर्चपर अंकुश नहीं रखेंगे तबतक वे अपनेको प्रजाका रक्षक सिद्ध नहीं कर सकेंगे। राजा प्रजाकी मेहनत-कमाईमें से हिस्सा लेता है और उसके बदले में वह उसकी सेवा करता है। जिसकी सेवाके बिना प्रजाका काम नहीं चल सकता, वही सरदार बनता है; पर वह जबतक प्रजाके प्रति वफादार रहता है तभीतक वह उसका सच्चा सरदार रहता है। वफादार राजामें दो गुण होने चाहिए--एक तो वह प्रजाके सुख, उसकी स्वतन्त्रता और उसके