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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नीति-सदाचारकी रक्षा करे और दूसरा प्रजासे मिले धनका सदुपयोग करे। यदि राजा अपने लिए अनुचित खर्च करता है तो वह धनका सदुपयोग नहीं करता। भले ही वह प्रजाकी अपेक्षा ज्यादा खर्च करे, उससे ज्यादा आमोद-प्रमोद करना चाहे तो करे, किन्तु उसकी एक हद अवश्य होनी चाहिए। मैं तटस्थ रहकर यह भली-भाँति देख रहा हूँ कि जन-जागृतिके इस युगमें मर्यादाकी बड़ी आवश्यकता है। ऐसी कोई भी संस्था जो अपनी लोकोपयोगिता सिद्ध नहीं कर सकती, अधिक कालतक जीवित नहीं रह सकती। एक सप्ताहमें काठियावाड़के चार राज्योंका जितना निरीक्षण हो सकता है उसके आधारपर कहा जा सकता है कि काठियावाड़ राजनीतिक परिषदें मैंने वहाँ प्रचलित राज्यतन्त्रका बचाव करते हुए जो विचार व्यक्त किये थे उनसे मेरे विचारोंकी पुष्टि हुई है। पर उसके साथ ही मैं उस तन्त्रकी कमजोरियाँ भी देख पाया हूँ। राजाओंके एक शुभैषीकी हैसियतसे मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि यदि वे पूर्वोक्त बातोंमें स्वेच्छापूर्वक सुधार कर देंगे तो वे अधिक लोकप्रिय ही नहीं बनेंगे वरन् अपने सिंहासनकी शोभा भी बढ़ायेंगे। वही सच्चा शासक है जो अपनी सत्ताकी मर्यादा खुद ही बाँध लेता है। ईश्वरने अपनी सत्ताको स्वयं नियमित कर लिया है, उसका दुरुपयोग करनेकी शक्ति होते हुए भी वह ऐसा नहीं करता। शरीरको जीवित रखनेका सामर्थ्य रहते हुए जो उसका त्याग करता है वह मोक्ष प्राप्त करता है। शुद्धतम ब्रह्मचारी स्वेच्छासे अपनी शक्तिका संग्रह करता हुआ ऐसी पराकाष्ठाको पहुँच जाता है कि अन्तको क्लीवकी तरह हो जाता है। यह स्थिति अवर्णनीय है---द्वन्द्वातीत है। वह जड़की तरह होते हुए भी शुद्ध निर्विकार चैतन्य है। इसीसे अंग्रेजीमें कहावत है कि राजा गलती कर ही नहीं सकता। भागवतकार कहते हैं कि तेजस्वीमें दोष नहीं होता। तुलसीदासने कहा है, 'समरथको नहिं दोष गुसाई'। इस कालमें इन तीनों वचनोंका अनर्थ हो रहा है। अर्थात् यह कि बलवानके दोष करते हुए भी हम यह मानते हैं और दूसरोंसे मनवाते हैं कि वह दोषी नहीं है। सच बात तो उससे उलटी ही है। बलवान वही है जो अपने बलका दुरुपयोग नहीं करता, अपनी इच्छासे वह बलका दुरुपयोग करना त्याग देता है--वह भी इस हदतक कि वह दुरुपयोग करनेके लिए अशक्त बन जाता है। हमारे राजा भी ऐसे क्यों न हो? क्या ऐसा होना उनकी शक्तिसे बाहरकी बात है?

राष्ट्रीय शाला

दो राष्ट्रीय शालाओंका उद्घाटन मेरे सामने हुआ है। एक तो राजकोट की; इसका उद्घाटन श्रीमान् ठाकुर साहबने ही किया--मैं तो केवल उपस्थित था। दूसरी बढवानकी। इसका उद्घाटन मेरे हाथों हुआ। दोनोंपर काले बादल मंडराये। दोनोंके सामने अछूतोंका सवाल आया। दोनोंने इस समस्याको हल कर लिया है। फिर भी इसके सम्बन्धमें वे निर्भय नहीं हुई। निर्भय होने में ही शिक्षकोंकी शक्तिका माप मालूम हो जायेगा। यदि शिक्षक विवेक, शान्ति, मर्यादा तथा तितिक्षापूर्वक अपना कार्य करते रहे तो अन्त्यजोंको अपनाते हुए भी वे लोगोंके विरोधके पात्र न होंगे और शालाओंमें दूसरे वर्णो के बालक अवश्य आ जायेंगे। शालाओंकी राष्ट्रीयता अध्या