पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४३
काठियावाड़के संस्मरण---२

पकोंके चरित्र बलपर, उनके देश-प्रेमपर, उनकी त्याग-भावना तथा उनकी दृढ़तापर अवलम्बित है। दोनोंकी इमारतोंको मैं मीठी ईर्ष्यासे देखता हूँ। यदि इनमें तपस्वी अध्यापक रहें तो ठीक होगा अन्यथा सम्भव है उनके द्वारा हमारी अधोगति हो। वर्मामें एक समय ऐसा था कि हर गाँवमें बढ़िया इमारतवाली सुन्दर शालाओंमें वहाँके साधु परिश्रमके साथ शिक्षा देते थे। इमारतें तो आज वही हैं, पर जब मैं उनमें गया तो वहाँ मुझे ऊँघते हुए आलसी साधु ही दिखे। शालाएँ तो नाम-मात्रको रह गई हैं। उनके प्राण निकल चुके हैं। जिस तरह अन्त्यजोंको भरती करना राष्ट्रीय शालाका आवश्यक अंग है उसी तरह चरखा भी है। इस चक्रकी नियमित गतिपर भारतवर्षके चक्रकी गति अवलम्बित है। इस चक्रका पूर्ण विकास तो राष्ट्रीय शालाओंके द्वारा ही हो सकता है। मैं प्रत्येक शालामें उसकी साधनाकी आशा रखता हूँ। शिक्षकगण चरखेके प्रति जिस हदतक आदर पैदा कर सकेंगे उसी हदतक वे देशभक्त माने जायेंगे। आलस्यकी नींदमें सोये इस देशको उद्यमी बनानेका चरखा ही एक साधन है। चरखा एक निष्काम उद्यम है और इसी कारण पूर्णतः फलदायी है। वह उद्यमका एक उत्कृष्ट स्वरूप है। आरम्भमें वह भले ही नीरस मालूम हो, पर उसकी नीरसतामें ही रस समाया हुआ है। उस रसके लिए रुचि पैदा करनेका काम शिक्षकोंका है। मैं आशा करता हूँ कि दोनों शालाएँ आदर्श बनेंगी।

बढवानके नागरिकोंसे

राजकोट और बढवानके निवासियोंसे मेरा निवेदन है कि वे अपनी-अपनी शालाओंमें दिलचस्पी लें; यह निवेदन मुख्यतया बढवानके नागरिकोंसे है। बढवानमें आचार्य फूलचन्द तथा नगर निवासियोंके बीच कुछ तनाव था। मैंने इस मामलेको समझनेका अवसर खोज निकाला और उन व्यक्तियोंसे भी मिला जिन्हें आचार्य फूलचन्दके विरुद्ध कुछ शिकायतें थीं। बातचीत करनेपर मुझे एसा लगा कि इन शिकायतोंका कारण भाई फूलचन्दके स्वभावकी उग्रताके सिवा और कुछ न था। नवीन व्यवस्थामें नागरिकोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है। शाला नगर-निवासियोंकी ही है। इसलिए यह वांछनीय है कि वे उसके संचालनमें सोत्साह भाग लें और यह उनका कर्त्तव्य भी है। एक समय था जब वे ऐसा करते थे और शालाके लिए धन भी देते थे। यह बात सभीकी जुबानपर थी कि अगर भाई शिवलाल जीवित होते तो बढवानका तेज कुछ और ही होता। परन्तु मरना तो प्रत्येक व्यक्तिको है। यदि हम चाहें तो जिनसे हमें स्नेह है उन्हें हम अमर बना सकते हैं। बढवानके अनेक बुद्धिमान नागरिक शिवलाल क्यों नहीं बन सकते? इस बातकी उम्मीद करना कि बढवानके सम्पन्न नागरिक अपने नगरकी शालाका खर्च उठा लेंगे, कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकारकी संस्थाओंके प्राण उनमें काम करनेवाले अध्यापक हैं। शरीर नागरिकोंको बनाना चाहिए।

उद्योग-शाला

बढवानमें भाई शिवलाल द्वारा स्थापित कताई-बुनाई सम्बन्धी उद्योग-शाला भी उल्लेखनीय है। इस शालाके द्वारा खादी-प्रचार कार्य समुचित रूपसे हुआ है, परन्तु