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काठियावाड़के संस्मरण---२

३. बुनाईमें सुधार करना चाहिए।

४. समितिसे लागत-मात्र ही ली जाये; और इस सम्बन्धमें समितिको इतमीनान दिला दिया जाये।

यह काम तभी हो सकता है जब सब लोग उमंग, परिश्रम, और ईमानदारीके साथ परस्पर विश्वास रखकर काम करें। अभी बहुतेरे लोगोंके दिलोंमें लोकसेवाके लिए एक साथ मिलकर काम करनेकी इच्छा उत्पन्न नहीं हुई है और न ही उसकी योग्यता आ पाई है। इससे हमारे काममें अनेक रुकावटें पैदा होती हैं। ये संस्थाएँ इन तमाम दोषोंसे मुक्त रह सकती है क्योंकि उनके कार्यकर्त्ताओंमें लोकसेवाकी भावनाका पर्याप्त विकास हो गया है। उनमें धर्म-भावना है और उन्हें थोड़ा-बहुत अनुभव भी है। केवल साथ मिलकर काम करनेकी और एक दूसरेके स्वभावको सहन करनेकी तालीमकी कुछ कमी हो सकती है। पर जहाँ भावना अच्छी है वहाँ इस खामीको अनुभव ही दूर कर सकेगा।

चरखमें सुधार

सामान्य तौरपर मैं यात्रामें भी अपना चरखा अपने साथ रखता हूँ। लेकिन काठियावाड़पर श्रद्धा होने के कारण और बहुत-सी चीजोंको साथ रखनेकी अनिच्छाके कारण मैंने चरखा साथ नहीं लिया और यह निश्चय किया कि जहाँ जाऊँगा वहींसे चरखा माँग लूँगा। इससे मुझे परीक्षाका भी ठीक-ठीक अवसर मिल गया। मैंने राजकोटमें तो अच्छे-अच्छे चरखे देखनेकी उम्मीद बाँध रखी थी। लेकिन जो मिला उसे मैं बहुत अच्छा नहीं कह सकता। बढ़िया चरखा तो वही है जो बराबर चलता हो, जिसकी साड़ी, माल इत्यादि सब अच्छे हों और जिसका तकुआ पतला और बिलकुल सीधा हो। मुझे नहीं लगता कि वहाँका चरखा सब बातोंमें पूरा उतरा। चरखेपर जो गर्द और धूल चढ़ी हुई थी वह तो बिलकुल असह्य थी। कारीगर हमेशा अपने औजारोंको अच्छोसे-अच्छी हालतमें रखता है। चरखेपर धूल क्यों जमी हो? जेतपुरने तो हद कर दी। जोश में आकर देवचन्दभाईने कह दिया कि "मेरे पास अच्छा चरखा है, अभी भेजता हूँ।" वे मुझे मोटरमें बिठा कर जेतपुर ले गय। रातके ग्यारह बजे थे। लेकिन मैं बिना काते कैसे सो सकता था? चरखा तो लाया गया, लेकिन वह चलता ही न था। तकुआ तो मानो गिरनारका मेहमान हो, साड़ीकी जगह जैसातैसा लपेटा गया सूत, माल तो मानो रस्सा था। चरखा चलाते हुए साधारण तौरपर मेरा कन्धा नहीं थकता। लेकिन इस अवसरपर तो चरखा चलाने में मुझे इतना जोर लगाना पड़ा कि आधे घंटेमें ही मेरा कन्धा थक गया। इतना बढ़िया था देवचन्दभाईका चरखा! ऐसे कटु अनुभवके बाद मानो उस चरखेकी फजीहत करानेके लिए ही देवचन्दभाईने सभा आयोजित की हो! मैंने उस सभामें उस चरखको तथा उसके मालिकको बदनाम करने में कुछ उठा नहीं रखा। लेकिन जैसा कि मैं ऊपर कह गया हूँ, समरथको दोष नहीं लगता। इस लोकोक्तिका अनर्थ करके देवचन्दभाईके चरखेका दोष कौन निकालेगा? देवचन्दभाई तो मन्त्री ठहरे। उनके चरखमें तो दोष हो ही नहीं सकते। उन्होंने भी यही मान लिया था। इसलिए मैं खुलेआम यह बता देना