कालीपरज लोगोंमें
मैं नीचेका उद्धरण वेडछी खादी आश्रमसे प्राप्त पत्रसे देता हूँ:
जैसा अनुभव इस पत्रलेखकको हुआ है वैसा ही अनुभव अनेक लोगोंको अन्य अनेक स्थानोंमें हो रहा है। चरखा हमारे राष्ट्रीय जीवनके निर्माणका केन्द्रबिन्दु बन गया है।
शिक्षामें क्या चाहिए?
एक अनुभवी शिक्षाविद्ने लिखा है:
पाठक देखेंगे कि ये विचार डा० सुमन्त मेहताके विचारोंसे बिलकुल उलटे हैं। सत्य दोनोंमें है। दोनोंपर अमल किया जाये तो अच्छा। किन्तु हममें इतनी शक्ति नहीं होती कि जो-कुछ अच्छा हो हम उस सबपर अमल कर सकें। शिक्षाको स्थायी रूप तो अनुभवसे ही प्राप्त होगा। हम अभी रसायनादि विषयोंकी शिक्षा नहीं देते। इसका कारण यह नहीं कि हम इस सम्बन्धमें उदासीन हैं, बल्कि यह है कि हमारे पास उसके लिए आवश्यक सामग्री नहीं है। इसी कारण जो विषय अत्यावश्यक है, शिक्षामें उन्हींको अग्रिम स्थान दिया गया है। चरखा तो उद्यमके चिह्नके रूपमेंहै। जब उसको निश्चित स्थान मिल जायेगा तब लुहार, बढ़ई आदि व्यवसायोंको और उनके शिक्षणको भी सहज ही उचित स्थान प्राप्त हो जायेगा। हमारा प्रयास निस्सन्देह चारों वर्णोकी शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओंकी पूर्ति करनेकी दिशामें ही होना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि हम इसी दिशामें आगे बढ़ रहे हैं। यदि सभी शिक्षा-शास्त्रियोंकी आस्था राष्ट्रीय शिक्षामें बनी रहेगी और वे निश्चयपूर्वक और श्रद्धाके साथ अपनाअपना काम करते जायेंगे तो शिक्षामें अभीष्ट सुधार अपने-आप हो जायेंगे। जहाँ दियानतदारी है वहाँ बरकत होती है। मैंने अपने भ्रमणोंमें एक ही बात देखी है। लोग ऐसे कामोंके लिए धन देनेके लिए तैयार हैं और इसके लिए अधीरसे हैं; किन्तु हमारे पास दृढ़-निश्चयी और कुशल लोग बहुत ही कम हैं।
१. इसे यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है। इसमें कालीपरज लोगोंपर खादी प्रचार कार्य का जो प्रभाव पड़ा, वह बताया गया था।
२. यह पत्र पहा नहीं दिया गया है। इसमें पत्र लेखकने बहुमुखी शिक्षापर जोर दिया था।
३.देखिए, "सच्ची शिक्षा",८-२-१९२५।