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वाइकोमके सवर्ण हिन्दू नेताओंके साथ बातचीत

और यदि शंकराचार्यके ग्रन्थ इस प्रथाका समर्थन न करें तो क्या आप अपने विरोधको वापस ले लेंगे?

उनमें इसके काफी प्रमाण हैं। लेकिन वस्तुतः आप उसकी दूसरी व्याख्या करने में समर्थ हैं।

मैं उसकी व्याख्या नहीं करूँगा। व्याख्या तो माने हुए पण्डित करेंगे।

यदि व्याख्या प्रथाके विरुद्ध गई तो हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते।

इसका यह अर्थ हुआ कि शंकराचार्यके ग्रन्थोंमें इस प्रथाका कोई समर्थन नहीं है; किन्तु यह आपके विवेककी कमीके कारण प्रचलित है? मान लीजिए न्यायालय यह निर्णय दे कि अवर्णों के लिए सड़कें खोल देनी चाहिये?

तो फिर हमें चाहिए कि हम उन सड़कोंका उपयोग बन्द कर दें और उन मन्दिरोंको छोड़ दें।

यदि महाराजा, शंकराचार्यकी भाँति ही जिन्हें कि आप प्रतिबन्धके समर्थन में उद्धृत करते हैं, सड़कोंको खुला छोड़नेकी घोषणा जारी कर दें तो आप क्या करेंगे?

राज्यको अधिकार है कि वह जो चाहे आदेश जारी करे। हमें उसका पालन करना ही होगा।

मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप यह न भूलें कि आप हिन्दू-धर्मके न्यासी हैं और मुझे आशा है कि आप उसके उज्ज्वल नामपर धब्बा नहीं लगायेंगे। मैं आपके सामने एक बीचका रास्ता रखता हूँ। क्या आप जनमत संग्रहको स्वीकार करेंगे?

क्या आपका अभिप्राय केवल मन्दिरमें आनेवाले लोगोंके मत-संग्रहसे है?

नहीं; यह उचित नहीं है। मेरा मतलब सभी सवर्णोंके मत-संग्रहसे है। मैं अवर्णोके मत-संग्रहकी बात नहीं कहता। आपको इससे सन्तुष्ट हो जाना चाहिए।

(कोई उत्तर नहीं।)

दूसरा सुझाव है। मान लीजिए कि हम भारतके किसी माने हुए पण्डितसे शंकराचार्यके आदेशकी व्याख्या करनेके लिए कहते हैं। क्या आप उसकी व्याख्याको स्वीकार करेंगे?

हो सकता है कि स्मृतिमें ऐसा कोई प्रमाण न हो; किन्तु स्मृतिपर लिखी गई टीकामें काफी प्रमाण मिलेंगे।

(यहाँपर एक बूढ़े न्यासीन कहा: परशुरामने हमें सारा मलाबार दिया है। अब यदि आप हमसे कहें कि परशुरामका पट्टा दिखाओ तो हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? प्रस्तुत अधिकारके बारेमें भी यही बात है। इसके लिए हम प्रमाण कहाँसे लायें?)

अन्तिम विकल्पके रूपमें, क्या आप पंच फैसलेको स्वीकार करेंगे? आप एक पण्डित नियुक्त करें और मैं भी सत्याग्रहियोंकी ओरसे एक पण्डित नियुक्त करूँ और दीवान साहब निर्णायकका पद लें; आप इस बारेमें क्या कहते हैं?

(कोई उत्तर नहीं)

[अंग्रेजीसे]
एपिक ऑफ त्रावणकोर
२६-१७