पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५९
भाषण: वाइकोमकी सार्वजनिक सभामें

अस्पृश्यता उन प्रश्नों में से एक है जिसके लिए खास तरहसे सत्याग्रहका सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि सत्याग्रह स्वयं कष्ट उठानेका तरीका है। अतः इसमें उन लोगोंको कष्ट नहीं दिया जाता जो इसका विरोध करते हैं, बल्कि कष्ट स्वयं ही उठाना पड़ता है। इस समय सत्याग्रहियोंने वाइकोममें यह स्थिति ग्रहण की है कि जो सड़कें बड़े मन्दिरके पाससे गुजरती हैं, उन्हें अछूत या अनुपगम्य समझे जानेवाले लोगोंके लिए खोल दिया जाये। इस दावेका आधार मानवता ही है। जहाँतक हिन्दुओंका सम्बन्ध है ऐसी कोई भी सड़क जो जनताके अर्थात् सवर्ण हिन्दुओंके लिए खुली है, उन लोगोंके लिए भी खुली रहनी चाहिए जो बहिष्कृत हैं और जिन्हें अछूत या अनुपगम्य कहा जा रहा है। मेरे नम्र विचारमें उनका यह दावा स्वाभाविक और न्यायसंगत है। जैसा कि आप जानते हैं, दक्षिण आफ्रिकाके लम्बे प्रवासके बाद मैंने जबसे भारतकी जमीनपर पाँव रखा है तभीसे मैं स्पष्ट रूपसे, निडरताके साथ तथा खुलकर अस्पृश्यताके प्रश्नपर बोलता आ रहा हूँ। मैं सनातनी हिन्दू होनेका दावा करता हूँ। मैं इस बातका भी दावा करता हूँ कि मुझे अपने मतलब-भरके लिए शास्त्रोंका काफी ज्ञान है। इसलिए मैं यह सुझाव देनेका साहस करता हूँ कि अस्पृश्यता और अनुपगम्यताके लिए, हमारे इस पवित्र देशमें जैसा उन्हें व्यवहारमें लाया जाता है, हिन्दू शास्त्रोंमें न तो कोई विधान ही है और न किसी प्रकारकी स्वीकृति ही। (हर्षध्वनि और तालियाँ)। मेरे कथनका आप न तो अनुमोदन करें और न विरोध करें; उसे केवल सुनें। मैं उन लोगोंको जो हिन्दू धर्मके अनुयायी होनेका दावा करते हैं, जो हिन्दू धर्मको अपने प्राणोंके समान प्रिय समझते हैं, यह सुझाव देनेका साहस करता हूँ कि प्रत्येक अन्य धर्मके समान ही हिन्दू धर्मको शास्त्रोंकी अनुमतिके अलावा भी, अपनेको एक सार्वभौम तर्ककी कसौटीपर कसना जरूरी है। इस तर्क, सार्वभौम ज्ञान तथा शिक्षाके युगमें और ऐसे युगमें जिसमें विभिन्न धर्मोंका तुलनात्मक अध्ययन होता हो, जो धर्म केवल अपने ही शास्त्रीय वचनों और प्रमाणोंका अनुसरण करता है, मेरे नम्र विचारमें असफल ही रहता है। मेरे विचारमें छुआछूत मानवतापर एक कलंक है। और इसीलिए हिन्दू धर्मपर भी वह कलंक है। यह तर्ककी कसौटीपर खरा नहीं उतर सकता। यह हिन्दू धर्मके मूलभूत नियमोंके विरुद्ध है। हिन्दू धर्मके तीन सिद्धान्तोंमें से जिन्हें मैं यहाँ प्रतिपादित करना चाहता हूँ, पहला है, "सत्यान्नास्ति परोधर्म:" अर्थात् सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। दूसरा है, "अहिंसा परमोधर्म:"। यदि अहिंसाका अर्थ प्रेम है तो अहिंसा जीवनका कानून है और वह सबसे बड़ा धर्म है; बल्कि वही एकमात्र धर्म है। तो फिर मैं आपसे कहूँगा कि अस्पृश्यताका सत्यके साथ सीधा विरोध है। तीसरा है, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" अर्थात् अकेला ईश्वर ही सत्य है, और सब-कुछ क्षणभंगुर है, माया है। यदि ऐसी बात है तो मैं कहता हूँ कि हमारे लिए अस्पृश्यताकी इस महान् सिद्धान्तके साथ संगति बिठाना असम्भव है। इसलिए मैं अपने कट्टरपन्थी मित्रोंके साथ तर्क करने आया हूँ। मैं उनसे और उनके सौजन्य तथा सद्भावनासे अपील करने आया हूँ। आज दोपहरके बाद मुझे उनके साथ बैठनका अवसर मिला। उन्होंने मेरी बात धैर्यपूर्वक और ध्यानसे सुनी। हमने बहस की, मैंने उनके विवेकसे,