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भाषण: वाइकोमके सत्याग्रह आश्रममें

इसका तरीका यह है कि आप उन्हें उनके उद्देश्यके प्रति उतना ही सच्चा होनेका श्रेय दें जितना सच्चा होनेका आप स्वयं दावा करते हैं। मैं जानता हूँ कि यह काम कठिन है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं कल जब उन लोगोंसे जो अन्त्यजोंको मन्दिरके रास्तोंसे दूर रखनेके अपने अधिकारका आग्रह करते हैं, बातें कर रहा था तब मुझे वैसा करना कठिन लग रहा था। मैं मानता हूँ कि उनकी बातोंके पीछे स्वार्थ-भावना थी। यदि यह सच हो तो मैं उन्हें उद्देश्यके प्रति ईमानदारीका श्रेय कैसे दे सकता हूँ? मैं इसके बारेमें कल सोचता रहा और आज सुबह भी मैंने सोचा। मैंने अपने आपसे सवाल किया: "उनकी स्वार्थ-भावना या उनका अपना हित आखिर किस बातमें है? यह सच है कि उनके अपने कुछ हित हैं, जिन्हें वे सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन उसी तरह हमारे हित भी हैं, जिन्हें हम पूरा करना चाहते हैं। अन्तर इतना ही है कि हम अपने हितको शुद्ध और इसलिए निःस्वार्थ मानते हैं। लेकिन इस बातका फैसला कौन करेगा कि किस जगह निःस्वार्थ भाव समाप्त होता है और स्वार्थभाव आरम्भ हो जाता है। हो सकता है कि निःस्वार्थभाव स्वार्थभावका ही शुद्धत्तम रूप हो।" यह बात मैं केवल तर्कके लिए ही नहीं कह रहा हूँ बल्कि मैं यह बात सचमुच महसूस करता हूँ। मैं उनके मनकी स्थितिका उन्हींके दृष्टिकोणसे विचार कर रहा हूँ, न कि अपने दृष्टिकोणसे। अगर वे हिन्दू न होते तो उन्होंने कल जिस ढंगसे बात की, उस ढंगसे न करते। और ज्यों ही हम किसी चीजके बारेमें उस ढंगसे विचार करने लगते हैं, जिस ढंगसे हमारे विरोधी करते है, त्यों ही हम उनके साथ पूरा न्याय करने योग्य बन जाते हैं। मैं जानता हूँ कि इसके लिए तटस्थ मनःस्थिति आवश्यक है, और ऐसी मन:स्थितितक पहुँचना बहत ही कठिन है। तथापि एक सत्याग्रहीके लिए यह सर्वथा अनिवार्य है। अगर हम अपने विरोधीकी स्थितिमें अपनेको रखकर उसके दृष्टिकोणको समझें तो दुनियामें से तीन-चौथाई दुःख और गलतफहमियाँ समाप्त हो जायेंगी। तब हम अपने प्रतिपक्षीकी बातसे जल्दी ही सहमत हो जायेंगे या उसके प्रति उदार हो जायेंगे। इस मामले में तो अपने प्रतिपक्षियोंके साथ जल्दी सहमत होनेका कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि हमारे आदर्श एक दूसरेसे बिलकुल भिन्न हैं। लेकिन हम उनके प्रति उदार हो सकते हैं और यह मान सकते हैं कि उनका वास्तवमें वही अभिप्राय है जो वे कहते हैं। वे अन्त्यजोंके लिए रास्ते नहीं खोलना चाहते। वे स्वार्थकी वजहसे वैसा कहते हों या अज्ञानके कारण, हमारा विश्वास तो यही है कि ऐसा कहना उनकी गलती है। इसलिए हमारा काम यह है कि हम उन्हें दिखा दें कि वे गलतीपर हैं, और यह काम हमें अपने कष्ट-सहन द्वारा करना चाहिए। मैंने पाया है कि जहाँ पूर्वग्रह युगों पुराने हों और तथाकथित धार्मिक प्रमाणोंपर आधारित हों, वहाँ केवल तर्क द्वारा समझानेकी कोशिश बेकार जाती है। तर्कको कष्ट-सहन द्वारा मजबूत करना होगा और कष्ट-सहन विवेकको जगा देता है। इसलिए हमारे कार्योमें जबरदस्ती लेश-मात्र भी नहीं होनी चाहिए। हमें अधीर नहीं बनना चाहिए और हम जो तरीके अपना रहे है उनमें हमारी अडिग आस्था होनी चाहिए। जो तरीका हम इस समय अपना रहे हैं वह यह है