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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बनाना हो तो उसमें राष्ट्रकी तत्कालीन दशा प्रतिबिम्बित होनी चाहिए। और चूँकि इस समय राष्ट्रीय दशा अनिश्चित है, अतः राष्ट्रीय शिक्षा भी न्यूनाधिक अनिश्चित रहेगी। जहाँ आक्रमण हुआ है और जिस स्थानको शत्रुने घेर लिया है, वहाँके बच्चे क्या करते हैं? क्या वे घेरा डालनेवालोंको पीछे हटाने में अपनी सामर्थ्यके अनुसार भाग नहीं लेते और अपने आपको बदली हुई परिस्थितियोंके अनुकूल नहीं बना लेते? क्या वह उनकी सच्ची शिक्षा नहीं है? क्या शिक्षा, पढ़नेवाले बच्चोंमें पूर्ण मनुष्यताका विकास करनेकी कलाका नाम नहीं है? वर्तमान शिक्षा प्रणालीका सबसे बड़ा दोष यह है कि उसपर वास्तविकताकी छाप नहीं है; बच्चोंमें देशकी विभिन्न आवश्यकताओंकी प्रतिक्रिया नहीं होती। सच्ची शिक्षा आसपासकी स्थितियोंके अनुरूप होनी चाहिए और यदि वह वैसी नहीं है तो उससे स्वस्थ विकास नहीं होगा। इस प्रतिक्रियाकी आवश्यकता है; इसी उद्देश्यपूर्तिके लिए शिक्षामें असह्योग दाखिल किया गया है। यह सच है कि हमने आदर्शके अनुकूल आचरण नहीं किया है। इसका कारण है हमारी सीमाएँ और इसका कारण यह है कि हम अपनी परिस्थितियोंके मोहक प्रभावसे मुक्त होनमें असमर्थ रहे हैं।

लेकिन ऐसा कहनेका अर्थ यह नहीं कि हमारी शिक्षा संस्थाएँ कताई और बनाईकी संस्था-मात्र बन कर रह जायें। मैं कताई और बनाईको किसी भी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणालीका आवश्यक अंग समझता हूँ। किन्तु मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि बच्चोंका सारा समय इसीमें लग जाये। एक कुशल चिकित्सककी भाँति मेरा ध्यान रोगीके रोग-पीड़ित अंगपर केन्द्रित रहता है और मैं उसीका उपचार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि अन्य अंगोंकी सार-सँभाल करनेका सबसे अच्छा तरीका भी यही है। मैं बच्चेके हाथोंका, दिमागका और आत्माका विकास करना चाहता हूँ। उसके हाथ लगभग निश्चेष्ट हो गये हैं। उसकी आत्मा नितान्त उपेक्षित रही है। मैं इसीलिए समय और असमय हमारी शिक्षाके इन गम्भीर दोषोंको दूर करनेका अनुरोध करता रहता हूँ। क्या प्रति दिन आधा घंटा सूत कातना हमारे बच्चोंके लिए कोई बहुत भारी काम है? क्या इससे उनका मस्तिष्क कुण्ठित हो जायेगा?

मैं विभिन्न विज्ञानोंकी शिक्षाको महत्व देता हूँ। हमारे बच्चे भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्रका अत्यधिक अध्ययन नहीं कर सकते। और जिन संस्थाओंमें मेरी दिलचस्पी मानी जाती है उनमें यदि इन विषयोंकी ओर ध्यान नहीं दिया गया है तो इसका कारण यह है कि हमारे पास इन विषयोंके लिए प्राध्यापक नहीं है और दूसरे इन विज्ञानोंके प्रयोगात्मक शिक्षणके लिए बहुत महँगी प्रयोगशालाओंकी आवश्यकता होती है, जिनको हम वर्तमान अनिश्चित और आरम्भिक अवस्थामें बनाने में समर्थ नहीं हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-३-१९२५