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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन निहित अधिकारोंमें से क्या रह जायेगा जिनका १९१४के स्मट्स-गांधी समझौतेके अनुसार पूरी तौरपर पालन होना था।

ट्रान्सवालमें सभी भारतीय व्यवसायोंका बहिष्कार और उनके विरुद्ध धरना देना फिर आरम्भ कर दिया गया है। इस बार जबकि वातावरण बहुत उत्तेजनापूर्ण है, यह कुछ-कुछ सफल भी हो गया है। नेटालमें 'भरती करनेवाले' सरकारी कर्मचारियोंके द्वारा भारतीयोंको स्वदेश वापस भेजनेका काम अब भी चल रहा है। मद्रासमें जो लोग लौटे हैं, उनसे खुद मैंने पूछताछ की है। उन्होंने मुझे बताया है कि उनको भारतमें धन्धा नहीं मिल सका है। इसलिए बड़े अर्थसंकट और अनेक कष्टोंको सहन करने के बाद ये लोग मलायाके प्रवासी-डिपोंमें जाकर इस बातकी अनुमति माँग रहे हैं कि उन्हें भारतसे बाहर संयुक्त मलाया राज्यके रबर बागानोंमें भेज दिया जाये। निःसन्देह दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंकी स्थिति इतनी गईबीती हो गई है कि वहाँ साहसीसे-साहसी भारतीयका भी हौसला पस्त हो गया है और उसे अपना भविष्य अन्धकारमय दीख रहा है। लेकिन एक ऐसी बात भी है जिससे कुछ राहत मिलती है। उसकी झलक हमें भारत पहुँच रही हर नई खबरसे लगातार मिल रही है। वहाँ हिन्दू-मुसलमानोंकी कोई समस्या नहीं है। इस समान संकटमें सब भारतीय एक हैं। वे मन और प्राणसे एक हैं और वे एक ही देशको अपनी जन्मभूमि मानते हैं।

दक्षिण आफ्रिकाकी स्थितिके उपरोक्त निराशाजनक व्यौरेको ध्यानमें रखते हुए इन स्तम्भोंमें गत सप्ताह जनरल स्मट्सका जो कथन उद्धृत किया गया था, वह और भी दिलचस्प हो जाता है। श्री एन्ड्रयूजने जिस धरनेका उल्लेख किया है, वह प्रच्छन्न दबावके अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब १९२१ में सब तरहकी सावधानी बरतनेपर भी धरना भारतमें शान्तिपूर्ण नहीं रहा, तब दक्षिण आफ्रिकामें वह शान्तिपूर्ण कैसे रह सकता है, इस बातको वे लोग ही समझ सकते हैं जो वहाँके गोरे लोगोंके स्वभावसे परिचित हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-३-१९२५

१. यह लेख श्री सी० एफ० एन्ड्रयूज द्वारा लिखा गया था।

२. देखिए "टिप्पणियाँ", ५-३-१९२५ के अन्तर्गत उपशीर्षक "दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिबन्ध"।