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१६१. स्वदेशी और राष्ट्रीयता

नीचे दिया गया पत्र बहुत दिनोंसे मेरे कागजोंमें रखा हुआ था:

निःसन्देह आपने एम० रोमां रोलां द्वारा रचित 'महात्मा गांधी' नामक पुस्तक पढ़ी ही होगी। उसके पृष्ठ १७६ पर लिखा है, "यह राष्ट्रीयताकी अत्यन्त संकुचित और विशुद्धतम विजय नहीं तो और क्या है? घरके अन्दर बने रहो, सब दरवाजे बन्द कर लो, किसी चीजमें परिवर्तन न करो, हर बातपर जहाँके-तहाँपर चिपके रहो। किसी वस्तुका निर्यात न करो, किसी वस्तुका आयात न करो, देह और आत्माको शुद्ध और उन्नत बनाते रहो।" निश्चय ही यह मध्ययुगीन साधुओंकी ही सीख है। और उदारचेता गांधी इस पुस्तकके साथ अपना नाम जुड़ने देते हैं। (द० बा० कालेलकरके 'स्वदेशी धर्म' की भूमिकाके तौरपर), चूँकि यह वचन आपके एक बड़े प्रशंसकके लिखे हुए हैं, इसलिए इसके सम्बन्धमें आपको उत्तर देना चाहिए। यं० इ० के २७ नवम्बरके अंकमें एन्ड्रयूज साहबके "राष्ट्रवादके सम्बन्धमें सचाई" नामक लेखके नीचे आपकी एक टिप्पणी इस आशयकी प्रकाशित हुई है कि भारतको स्वदेशी भावना अशुद्ध या जातिषद्वेष-मूलक नहीं बन सकती। क्या आप किसी अगले अंकमें इस आशयको और स्पष्ट करके इस अद्भुत पुस्तकके लेखक और उसके असंख्य पाठकोंकी आशंका दूर करने की कृपा करेंगे?

जहाँतक श्री कालेलकरकी पुस्तिकाका सवाल है, स्थिति इस तरह है। वह गुजराती पुस्तिकाका अंग्रेजी अनुवाद है। मैंने प्रस्तावना मूल पुस्तकके लिए लिखी थी। श्री कालेलकर मेरे आदरणीय साथी हैं। इसलिए मैंने पुस्तकको गौरसे देखे बिना ही पाँच छ: सतरें प्रस्तावनाके तौरपर गुजरातीमें लिख दी। मैंने उसके कुछ वाक्य इधर-उधरसे देख लिये थे। मैं स्वदेशी-सम्बन्धी उनके विचारोंको जानता था। इस कारण मुझे उनके साथ एकमत होने में कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन एन्ड्रयूजके कहने पर मैंने अंग्रेजी अनुवादको पढ़ा और मैं मानता हूँ कि उसमें कहीं-कहीं संकीर्णता आ गई है। मैंने श्री कालेलकरसे भी उसकी चर्चा की और वे भी इस बातको मानते हैं कि अनुवादमें संकीर्णता दिखाई देती है, पर उसके लिए वे जिम्मेवार नहीं हैं। जहाँतक मेरे विचारोंकी बात है मेरे 'यंग इंडिया' के लेख इस बातको अच्छी तरह स्पष्ट कर देते हैं कि मेरी स्वदेशी, और इस कारण श्री कालेलकरकी स्वदेशी वैसी संकुचित नहीं है जैसा कि उस पुस्तिकाको पढ़नेसे लगता है।

यह तो हुआ पुस्तिकाके बारेमें।

१. यहाँ पृष्ठ संख्या ११५ होनी चाहिए।

२. द्रुय अबाउट नेशनलिज्म।

२६-१८