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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरी स्वदेशीकी व्याख्या सभी लोग जानते हैं। मैं अपने नजदीकी पड़ोसीकी हानि करके दूरवर्ती पड़ोसीकी सेवा नहीं करूँगा। इसमें प्रतिशोध या दण्डकी बात जरा भी नहीं है। वह संकुचित किसी भी अर्थमें नहीं है; क्योंकि मुझे अपनी उन्नति या विकासके लिए जिन-जिन चीजोंकी जरूरत पड़ती है वे सब मैं दुनियाके हर हिस्सेसे खरीदता हूँ। किन्तु मैं किसीसे भी कोई ऐसी चीज लेनेसे इनकार करता हूँ--फिर वह कितनी ही नफीस और खूबसूरत क्यों न हो--अगर वह मेरी या उन लोगोंकी उन्नतिमें, जिनकी सार-संभाल करना कुदरतने मेरा पहला फर्ज बताया है, बाधा डालती हो या नुकसान पहुँचाती हो। मैं उपयोगी और स्वस्थ साहित्य संसारके प्रत्येक भागसे खरीदता हूँ। मैं शल्यचिकित्साके औजार इंग्लैंडसे, पिन और पेन्सिलें आस्ट्रियासे और घड़ियाँ स्विट्जरलैंडसे मँगाता हूँ। पर मैं उम्दासे-उम्दा एक इंच कपड़ा भी इंग्लैंडसे, जापानसे या दुनियाके और किसी हिस्सेसे न खरीदूँगा--क्योंकि उससे भारतके लाखों लोगोंको हानि पहुँच चुकी है और बराबर पहुँच रही है। भारतके लाखों कंगाल और जरूरतमन्द लोगोंके द्वारा कते-बुने कपड़ोंको न खरीदकर विदेशी कपड़ेको खरीदना मैं पाप मानता हूँ--फिर भले ही वह भारतके हाथ-कते कपड़ेसे बढ़िया क्यों न हो। अतएव मेरी स्वदेशीका मध्यबिन्दु प्रधानत: हाथकती खादी है और उसको परिधिमें वे सब चीजें आ जाती हैं जो हिन्दुस्तानमें बनती हैं या बनाई जा सकती हैं। मेरी राष्ट्रीयता वहींतक है जहाँ मेरी स्वदेशी भावनाको आँच नहीं आती। भारतके उत्थानको कामनाके पीछे मेरी यह कामना निहित है कि सारे संसारको लाभ हो। मैं यह नहीं चाहता कि भारत दूसरे राष्ट्रोंका विनाश करता हुआ प्रगति करे। यदि भारतवर्ष सशक्त और समर्थ होगा तो वह दुनियाको अपनी कलात्मक वस्तुएँ और स्वास्थ्यप्रद मसाले भेजता रहेगा और अफीम या नशीली चीजें भेजनेसे इनकार करेगा--भले ही उनके व्यापारसे उसके बहुत बड़े आर्थिक लाभ होनेकी सम्भावना क्यों न हो।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-३-१९२५

१६२. सन्तति नियमन

निहायत झिझक और अनिच्छाके साथ मैं इस विषयमें कुछ लिखनेको प्रवृत्त हुआ हूँ। जबसे मैं भारतवर्ष लौटा हूँ तभीसे पत्र-लेखक कृत्रिम साधनों द्वारा सन्तति नियमनके प्रश्नपर मुझे लिखते रहे है। मैं खानगी तौरपर ही अबतक उनको जवाब देता रहा हूँ। किन्तु अभीतक सार्वजनिक रूपसे मैंने उसकी चर्चा नहीं की है। आजसे कोई पैंतीस साल पहले जब मैं इंग्लैंडमें पढ़ता था तब इस विषयकी ओर मेरा ध्यान गया था। उस समय वहाँ एक संयमवादी और एक डाक्टरके बीच बड़े जोरका विवाद छिड़ा हुआ था। संयमवादी कुदरती साधनोंके सिवा किसी दूसरे साधनोंको माननेके लिए तैयार न था और डाक्टर कृत्रिम साधनोंका हामी था। कुछ समयतक कृत्रिम साधनोंकी ओर प्रवृत्त होनेके बाद उसी समयसे मैं उनका पक्का विरोधी हो गया।