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टिप्पणियाँ

मैंने एक पत्र प्रकाशित किया था उससे ऐसा जान पड़ता था कि कमसे-कम बरार सूत देनेवाले सभासदोंकी दृष्टिसे शानके साथ सामने आयेगा। लेकिन मुझे अफसोस है कि वह तो सबसे पीछे रह गया है। यदि अजमेर चाहे तो एक हजार कातनेवाले सदस्य आसानीसे दे सकता है। लेकिन उसने तो दो कातनेवाले और १५ सूत देनेवालोंसे ही शुरुआत की है। मैं आशा करता हूँ कि बंगाल, आन्ध्र, कर्नाटक, बिहार और तामिलनाडु, जहाँ कातनेके अच्छे केन्द्र है, गुजरातको हरा देंगे; और यह किसी अन्य कारणसे नहीं तो केवल इसलिए कि उनकी जनसंख्या गुजरातसे कहीं अधिक है। उनको कताईकी परम्परा विरासतमें मिली है और वहाँके लोग उसे आजतक भूले नहीं हैं।

१,००० रुपयेका इनाम

मैं देख रहा हूँ कि श्री रेवाशंकरके इनामको पानेके लिए कई युवक जी तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं। कुछ लेख तो बहुत ही बढ़िया ढंगसे लिखे गये जान पड़ रहे हैं। इस प्रतिद्वन्द्वितामें भाग लेनेवालोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि श्री अम्बालाल साराभाईने परीक्षक-मण्डलमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। मुझे आशा है कि इस विषयके साहित्यको बढ़ानेको दिशामें कुछ और भी उत्कृष्ट लेख प्राप्त होंगे।

दिया हुआ सूत खरीदना

एक जिला कमेटी के मन्त्री लिखते हैं कि कुछ सूत कातनेवालोंको अपने काते हुए सूतसे इतना प्रेम है कि वे अपना सूत फिर खरीद कर अपने इस्तेमालके लिए उसीका कपड़ा बुनवाना चाहते हैं। वे मुझसे पूछते हैं कि जिन लोगोंने अपना सूत सदस्यताकी फीसके रूपमें भेजा है वे पूर्वोक्त उद्देश्यसे फिर अपना सूत खरीद सकते हैं या नहीं। निःसन्देह आदर्श तो यही है कि लोग अपने कपड़ोंके लिए फुरसतके वक्त पर्याप्त सूत कातें। कपड़े के विषयमें स्वावलम्बी होनेका यही सबसे अच्छा और सुगम उपाय है। इसलिए मैं सभी कांग्रेस कमेटियोंके मन्त्रियोंको सलाह दूँगा कि वे सूत देनेवालोंको अपना सूत खरीदनेके लिए जरूर उत्साहित करें; पर इसका इतमीनान कर लें कि वे फिर उसी सूतको अपनी फीसके तौरपर जमा तो नहीं करा रहे हैं।

कुछ प्रभावकारी आँकड़े

एक खद्दर प्रेमीने मुझे कुछ आँकड़े यह सिद्ध करनेके लिए भेजे हैं कि यदि लोगोंको सुस्ती छोड़ने और चरखा चलाने एवं खद्दरके कपड़े पहनने के लिए राजी किया जा सके तो कपड़े के मामलेमें भारतको स्वावलम्बी बनाना कितना आसान है।

१. देखिए "टिप्पणियाँ", १९-२-१९२५ के अन्तर्गत उपशीर्षक "पुरस्कार-निबन्धके सम्बन्धमें"।

२. अहमदाबादके एक उद्योगपति।

३. ये यहाँ नहीं दिये गये हैं। उन आँकड़ों के अनुसार भारतकी ३१ करोड़ २० लाखकी आबादीके लिए प्रति व्यक्ति, सालमें औसतन २० गज कपड़ेके हिसाबसे, ६२४ करोड़ गज कपड़े की जरूरत है। तीन करोड़ चरखे और ३५ लाख करघे चलाकर यह कपड़ा देशमें ही तैयार किया जा सकता है। १९२२ में लगभग २०० करोड़ गज जो कपड़ा विदेशोंसे मँगाया गया था, उसे देशमें ही सिर्फ एक करोड़ चरखे और १२ से १५ लाखतक करघोंपर तैयार किया जा सकता था।