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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधिकार प्राप्त नहीं है और वे शक्तिहीन हैं तब तो उनके साथ किया गया यह अन्याय और भी बड़ा अन्याय कहलायेगा। यह याद रखना चाहिए कि केनिया कोई निर्जन देश नहीं है; वह ऐसा देश नहीं है जिसमें वहाँके मूलनिवासी न हों। यह एक बड़ा प्रदेश है किन्तु उसमें बहुत थोड़ी जमीन ऐसी है जहाँ सिंचाईके लिए भरपूर साधन उपलब्ध हैं और जहाँ खेती की जा सकती है। अगर अपने स्वार्थ-साधनके लिए वतनियोंको मजदूर बनाकर उनका शोषण न किया गया होता, ऐसा शोषण जिससे वतनियोंका दिन-ब-दिन अधःपतन हो रहा है, तो वतनी लोगोंकी आबादी सारी कृषि योग्य भूमिमें फैल गई होती और उसने उसपर अधिकार कर लिया होता। आज भी इस शोषणके बावजूद वतनी लोगोंके लिए 'रक्षित भूमि' बहुत कम पड़ रही है। इसलिए यदि भारतीय, अंग्रेज और भारतीय सैनिकोंकी संगीनोंके बलपर उस प्रदेशमें से, जो अब भी वतनियोंके लिये खुला है, बड़ा भाग हथिया लेंगे तो यह उनके प्रति घोर अन्याय होगा।

तीसरी बात यह है कि केनिया और युगाण्डामें भारतीय अबाध प्रवासका दावा इसी आधारपर करते हैं कि वे वतनी लोगोंकी उन्नतिमें सहायता दे रहे हैं और उनके मार्गमें रुकावटें नहीं डाल रहे हैं। इसके अतिरिक्त उनका कोई दूसरा दावा नहीं है। उनका कहना यह है कि पूर्वी आफ्रिका और भारतके बीच दो हजार सालसे व्यापार चल रहा है। भारतीय पूर्वी आफ्रिकामें बेरोकटोक आते रहे और वहाँ उनका स्वागत किया गया, क्योंकि वे वहाँ मेल-जोलसे रहनेके लिए गये--लड़ने के लिए नहीं; और क्योंकि भारतीयों और वतनियोंके बीच व्यापार और वस्तु-विनिमयका दोनोंको फायदा हुआ है। इधरसे पूर्वी आफ्रिकाके लोग भी भारतमें इसी प्रकार अबाध रूपसे जा सके हैं। वहाँ भी इसी कारण उनका प्रेमपूर्वक स्वागत किया गया है। इस प्रकार दोनों ओरसे मुक्त प्रवासको बढ़ावा दिया गया है और वह प्रवास लगातार चलता रहा है। लेकिन यदि दोनोंके बीच एक नये ही सम्बन्धकी--विजेताकी भावनासे अधिकार करने की--वकालतकी जाती है (चाहे उसे कैसा ही शिष्ट रूप क्यों न दिया जाये) तो पूरी स्थिति ही बदल जाती है। भारतीयोंका यह दावा कि वे वतनियोंका सम्मान करते हैं और उन्हें लाभ पहुँचाते हैं, व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। भारतीय आफ्रिकामें साम्राज्यवादी आक्रमणकारी बन जाते हैं और वे इस मामलेमें यूरोपीयोंकी श्रेणीमें आ जाते हैं। यद्यपि वे स्वयं गुलामीको बेड़ियोंमें जकड़े हुये हैं फिर भी दूसरोंको गुलाम बनानेके लिए तैयार हैं। वे पीड़ित और शोषितोंके पक्षमें नहीं हैं, बल्कि अन्यायियोंके साथी बन जाते हैं और लूटमें हिस्सा लेते हैं। उत्तरदायी भारतीय ऐसे कार्य करेंगे और इतने बड़े पैमानेपर जैसा कि अब विचार किया जा रहा है, यह बात में सोच भी नहीं सकता।