मैं श्री एन्ड्रयूजके इस विचारका पूरा समर्थन करता हूँ कि भारतीय लोगोंको पहाड़ी प्रदेशोंसे हटाकर खास तौरसे मैदानोंमें बसानेके विचारको मानना हर तरहसे अनचित होगा, विशेषतया जब इसमें इन मैदानोंको वतनी लोगोंसे छीननेकी बात हो।
१६५. एम० वी० एन० से
मैं अस्पृश्यता और वर्ण या जातिमें बहुत बड़ा अन्तर मानता हूँ। अस्पृश्यताका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उसका समर्थन तर्कसे नहीं किया जा सकता। उसके कारण मनुष्य अपने साथियोंकी सेवा करने के अधिकारसे वंचित हो जाता है और मुसीबतमें पड़े "अछूत" अपने इतर सह मनुष्योंकी सेवा पानेके अधिकारी नहीं रहते। मेरी रायमें वर्ण-व्यवस्थाका आधार वैज्ञानिक है। विवेकसे उसका विरोध नहीं है। यदि इससे हानियाँ हैं तो लाभ भी हैं। वर्ण-व्यवस्था किसी ब्राह्मणको अपने शूद्र भाईकी सेवा करनेसे नहीं रोकती। वर्णसे सामाजिक, और नैतिक मर्यादा बंधी रहती है। वर्णके सिद्धान्तको इससे आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। मैं उसे चार वर्णतक ही सीमित मानता हूँ। उन्हें और बढ़ानेसे बुराइयाँ आयेंगी। मैं वर्णोंका सुधार करना और उनमें सचमच जो बुराइयाँ आ गई हैं उन्हें दूर करना चाहता हूँ। किन्तु मझे वर्णों को ही खत्म करनेका कोई कारण दिखाई नहीं देता। मेरी दृष्टिमें वहाँ ऊँच-नीचका कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जो ब्राह्मण यह समझता है कि वह श्रेष्ठ प्राणी है और दूसरे वर्णोंका तिरस्कार करता है, वह ब्राह्मण नहीं है। यदि उसको वर्गों में अग्रगण्य स्थान मिलता है तो वह सेवाके अधिकारकी दृष्टिसे है।
१६६. आर० एस० एस० आर० से
आपने अपना पता नहीं दिया है। यदि आपके मतसे 'गीता' के अन्य अध्यायोंमें हिंसाका समर्थन किया गया है, तो फिर आपने १२वें अध्यायसे जो श्लोक उद्धत किये हैं उनसे भी अहिंसाका अधिक समर्थन नहीं होता। लेकिन आपके इस कथनसे कि 'गीता' में कहीं भी हिंसाका समर्थन है और उसकी शिक्षा दी गई है, मैं सहमत नहीं हूँ। दूसरे अध्यायके अन्तके श्लोकोंको देखिए। यद्यपि उस अध्यायके शुरूके श्लोकोंकी व्याख्या हिंसामूलक की जा सकती है, फिर भी मुझे लगता है कि उस अध्यायके अन्तमें जो श्लोक हैं उनका वैसा अर्थ नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि 'गीता' की शाब्दिक व्याख्या करनेसे पाठक विरोधोंके जालमें फँस सकता है। जैसा कहा गया है, "शब्द मारक होता है, भाव तारक होता है।"