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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और मेरा कर्तव्य है कि हम अन्ध कट्टरताके विरोधको समाप्त कर दें। जबतक आप इन विरोधकी दीवारोंको तोड़ने में स्वयं मुख्य भाग नहीं लेंगे तबतक आप मुक्ति और स्वतन्त्रताके आनन्दका अनुभव नहीं करेंगे।

मैं जिन कट्टरपन्थी भाइयोंसे मिला, उन्होंने बड़े शुष्क ढंगसे कर्मफलके भोगकी बात कही; और वह ठीक ही है। कर्मके सिद्धान्तका जो भावार्थ में देना चाहूँगा वह यह है कि हर व्यक्ति जिसके योग्य होता है वही पाता है, और हमें जो कुछ जन्मसे प्राप्त हुआ है, हम उसके पात्र हैं। हिन्दू धर्म वंश-परम्परामें विश्वास करता है, और वैज्ञानिक भी इसे मानते हैं। हिन्दू धर्म तो व्यवहारगत विज्ञान ही है। लेकिन यही विज्ञान, यही हिन्दुत्व हमें कर्मकी गतिको बदलना भी सिखाता है। कर्मकी गति बदली जाती है, पूर्वकृत कर्मोसे बिलकुल विपरीत ढंगके कर्म करनेसे। यदि अपने पूर्वजन्ममें मैंन ऐसा कोई काम किया है जो गलत है तो उस पूर्वकर्मके फलको मैं उस पाप कर्मसे बिलकुल उलटा कोई पुण्य कार्य करके समाप्त कर सकता हूँ। और जिस प्रकार हमारे लिये विगतकी अपेक्षा इस जन्ममें ज्यादा अच्छे कर्म कर सकना सम्भव है उसी प्रकार इन कट्टरपन्थियोंके लिये सम्भव है कि वे इस जन्ममें बुरेपर-बुरे कर्म ही करते चले जायें और बादमें अपने कर्मोंका कड़वा फल चखें। कर्मका सिद्धान्त किसीके साथ पक्षपात या अन्याय नहीं करता, लेकिन मैं आपसे कहूँगा कि आप कट्टरपन्थियोंको उन्हींके हालपर छोड़ दीजिए। मनुष्य स्वयं अपने भाग्यका निर्माता है और इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि अपने भाग्यके निर्माता आप स्वयं बनिए। मैं इन कट्टरपन्थियों और उनकी कट्टरतासे पीड़ित लोगोंके बीच सेतू बनने की कोशिश कर रहा है, अतएव मेरे लिए जहाँतक सम्भव है मैं आप लोगोंमें से ही एक बननेकी कोशिश कर रहा हूँ। और फिर, जैसा कि आज सुबह मैंने पूज्यपादको भी बताया था, मैं अपनेको भंगी कहता हूँ, और भंगियोंका स्थान दलित वर्गों में सबसे नीचा है। मुझे अपनेको भंगी कहने में लज्जा नहीं है और मैं भंगियोंसे कहता हूँ कि वे अपने पेशेपर लज्जाका अनुभव न करें। एक ईमानदार भंगी तो स्वच्छता रखनेवाला व्यक्ति है। मैं अपनेको बुनकर, कतैया और किसान भी कहता हूँ। कट्टरपन्थी कहते हैं कि दलित वर्गको अपनी जन्मजात बुराइयोंके कारण दलितवर्गमें ही रहना चाहिए। हमारा और आपका यह काम है कि हम और आप दिखा दें कि मनुष्यमें कोई बुराई जन्मजात नहीं है। मनुष्यमें जो कुछ जन्मजात हैं वे गुण ही हैं। अपनी सामर्थ्य और सम्भावनाओंकी अनुभूति करते ही मनुष्य देवताके समान बन जाता है और मैं चहता हूँ कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति जो उसे बनना चाहिए वही बने, न कि वह जैसा है वैसा ही बना रहे।

मुझे आपके बीच इतने सारे शिक्षित लोग, वकील, डाक्टर और अन्य धन्धोंके लोग देखकर खुशी तो होती है; लेकिन फिर भी मैं यह कहूँगा कि केवल मेरे सन्तोषके लिए इतना ही काफी नहीं है। पढ़ा-लिखा होना अच्छा तो है, लेकिन यही कुछ नहीं है। अन्तमें जो चीज काम आयेगी वह शब्दज्ञान नहीं बल्कि चरित्रबल है। इसलिए मैं आपसे कहूँगा कि अपने अन्दरके सभी अच्छे गुणोंका विकास कीजिए, और आप देखेंगे कि चाहे जितनी दुर्धर्ष शक्तिसे पाला क्यों न पड़े वह शक्ति उस