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भाषण : महिला परिषद्, सोजित्रामें

स्थिति मैंने इनकी देखी। शरीरपर पूरे कपड़े नहीं थे। किन्तु उस समय मैं इन्हें कपड़े नहीं दे सका, क्योंकि तबतक चरखा मेरे हाथ नहीं लगा था। हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंको कपड़ा मिलता है, फिर भी वे नग्न हैं। क्योंकि जबतक देशमें एक भी बहनको बिना कपड़ेके रहना पड़ता हो, तबतक यही माना जायेगा कि देशकी सारी स्त्रियोंके पास कपड़े नहीं है। इसी प्रकार अगर कोई स्त्री सोलह सिंगार किये हुए हो और उसका हृदय अपवित्र हो, तो उसे भी विवस्त्र ही माना जायेगा। हमें विचार करना है कि कैसे इन सबसे चरखा चलवायें ताकि वस्त्रहीनताका यह अभिशाप दूर हो।

आज तो जब सेवा करनेवाले लोग गाँवमें जाते हैं तो वहाँके लोगोंको ऐसा लगता है कि कोई चौथ वसूल करनेवाला आ गया। उन्हें ऐसा आभास क्यों होता है? आप लोगोंको यह समझ लेना चाहिए कि आप गाँवोंमें देनेके लिए जाते हैं, लेनेके लिए नहीं।

हमारी माताएँ सूत कातती थीं। क्या वे मूर्ख थीं? मैं जब आप लोगोंको कातनेको कहता हूँ तो मैं आपको मूर्ख लग सकता हूँ। किन्तु पागल गांधी नहीं है, आप खुद पागल हैं। आपके मनमें गरीबोंके लिए दया नहीं है। और इसके बाद भी आप अपने मनको धीरज देना चाहते हैं कि देश सम्पन्न हो गया है। और फिर आप लोग सम्पन्नताके गीत गाते हैं। यदि आप सार्वजनिक जीवनमें पाँव रखना चाहती हैं। तो जनताकी सेवा कीजिए, चरखा कातिए, खादी पहनिये। यदि आपका तन और मन शुद्ध हो गया, तो आप सच्ची देशभक्त बनेंगी। भगवानका नाम लेकर सूत कातिए। भगवानका नाम लेकर सूत कातनेका अर्थ है, गरीब बहनोंके लिए कातना। दरिद्रको दिया गया दान ईश्वरको पूजा चढ़ाने जैसा है। दान तो वही है जो दरिद्रको सुख पहुँचाये। आप चाहे जिसको पैसा लुटायें, तो उसका तो यही अर्थ होगा कि आप अपनी सनक पूरी करती हैं। जिसे ईश्वरने दो हाथ, दो पाँव और स्वास्थ्य दिया है, यदि आप उसे दान देती हैं, तो कहना पड़ेगा कि आप उसे कंगाल बनानेपर तुली हुई हैं। कोई ब्राह्मण है, केवल इसीलिए उसे भिक्षा न दी जाये। उससे चरखा चलवाइए और फिर एक मुट्ठी ज्वार या चावल दे दीजिए। गरीबोंमें जाकर खादीका प्रचार करना मनकी पवित्रताका पहला लक्षण है।

दूसरा लक्षण है अन्त्यजकी सेवा करना। आजकलके ब्राह्मण और गुरुगण आदि अन्त्यजको छूनेमें पाप मानते हैं। मैं कहता हूँ कि यह पाप नहीं है, धर्म है। मैं इनके साथ खाने-पीनेकी बात नहीं कहता। मैं तो उनकी सेवाके लिए, उनके बीच जानेके लिए कहता है। अन्त्यजके जो बच्चे बीमार हैं, उनकी सेवा करना धर्म है। अन्त्यज खाते हैं, पीते हैं, खड़े होते हैं और बैठते हैं। हम सब भी यही करते हैं। इन सब क्रियाओंमें न कोई धर्म है, न कोई पवित्रता। निश्चित अवधिमें मेरी माता भी अस्पृश्य हो जाती थी और उस समय वह अपनेको छूने नहीं देती थी। मेरी पत्नी भी इसी तरह अस्पृश्य हो जाती थी। कह सकते हैं कि उस समय वह अन्त्यज हो जाती थी। जब हमारे भंगी मैला फेंकनेका काम करते हैं, तब वे अस्पृश्य होते हैं। जबतक वे नहा-धो न लें तबतक उनको न छूनेकी बात समझमें आ सकती है। किन्तु नहाधोकर साफ सुथरे बन चुकनेके बाद भी यदि हम उन्हें नहीं छूते, तो फिर उनके