पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०५
ज्ञानकी शोध में

राम-रावणका दृष्टान्त तो शाश्वत है। इससे सन्तोष न होनेका अर्थ इतना ही है कि असन्तुष्ट होनेवालेने राम-रावणको ऐतिहासिक पात्र मान लिया है। ऐतिहासिक राम-रावण तो चले गये। परन्तु मायावी रावण आज भी मौजूद है और जिनके हृदयमें रामका निवास है वे रामभक्त आज भी रावणका संहार कर रहे हैं।

जो बात मृत्युके बाद ही जानी जाती है उसको आज जान लेनेका लोभ रखना कितना जबरदस्त मोह है? यदि पाँच सालका कोई बालक पचासवें वर्ष में क्या हो जायेगा, यह जाननेका लोभ रखे तो उसकी क्या स्थिति होगी? परन्तु जिस तरह ज्ञानी बालक औरोंके अनुभवसे अपने सम्बन्धमें कुछ अनुमान कर सकता है उसी तरह हम भी औरोंके अनुभवसे मृत्युके बादकी स्थितिका कुछ अनुमान करके सन्तुष्ट रह सकते हैं।

अथवा मृत्युके बाद क्या होगा, यह जानने से क्या लाभ? क्या इतना जान लेना काफी नहीं है कि सुकृतका फल मीठा और दुष्कृतका कड़वा होता है? सर्वोत्तम कृत्यका फल मोक्ष है। मैं मोक्षकी यह व्याख्या उक्त पत्र-लेखकको बताना चाहता हूँ।

लेखक महोदय मूर्तिका स्थूल अर्थ करके भ्रमात्मक उपमाका सहारा लेते हुए खुद ही भुलावे में पड़ गये हैं। मूर्ति परमेश्वर नहीं है। बल्कि लोग मूर्तिमें परमेश्वरका आरोप करके उसकी आराधनामें तल्लीन होते हैं। हम लकड़ीके मनुष्य बनाकर लकड़ीके उन पूतलोंसे मनुष्यका काम नहीं ले सकते। लाखों सुपुत्र और सुपुत्रियाँ चित्र रखकर अपने माता-पिताओंकी स्मृति ताजा बनाये रखते हैं, तो इसमें क्या बुराई है? परमेश्वर सर्वव्यापक है। नर्मदाके एक पत्थरमें भी उसका आरोप करके परमेश्वरकी भक्ति सम्भव है।

अन्तमें, लेखक महोदय यदि यह मानते हों कि देहातमें रहकर चरखके द्वारा देहातियोंकी सेवा करने में उन्हें सन्तोष होगा तो उन्हें देहातमें चले जानेकी तैयारी फौरन करनी चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १५-३-१९२५




२६-२०