पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१७५. नवजीवन के सम्बन्धमें

'नवजीवन' के एक ग्राहकने एक लम्बा शिकायतनामा भेजा है। उसका आशय इस प्रकार है:

१. 'नवजीवन' मासिक-पत्रोंके ढंगका पत्र हो गया है क्योंकि उसमें केवल चरखे और खादीके सम्बन्धमें नीरस और निराशा-भरे लेख रहते हैं।

२. 'नवजीवन' में महादेव मेरे दौरोंका दैनिक विवरण लगभग डायरीके रूपमें देते हैं और फिर उसीको लेकर लिखते चले जाते हैं।

३. 'नवजीवन' के परिशिष्टांकमें, जिसके बारेमें यह माना गया है कि वह शिक्षा, सम्बन्धी बातोंके लिए ही है, जो शिक्षा-सम्बन्धी समाचार प्रकाशित हुए हैं, उन्हें पढ़कर निराशा ही होती है और उसमें शिक्षाकी कोई योजना भी नहीं दी गई है।

४. 'नवजीवन' में अन्य लेख तो दिए ही नहीं जाते हैं। यह तो हद ही हो

५. 'नवजीवन' जैसा महँगा साप्ताहिक दुनियामें कदाचित् ही कोई दूसरा होगा। कागजका दाम कम हो जानेपर भी 'नवजीवन' का दाम अभीतक वही बना हुआ है।

इन तर्कोंमें कुछ सत्य है। ग्राहक महोदयका आग्रह है कि मैं इस विषयकी चर्चा 'नवजीवन' में करूँ।

मैं ग्राहकोंको 'नवजीवन' का हिस्सेदार मानता हूँ। जबतक वे एक निश्चित संख्यामें 'नवजीवन' खरीदते रहेंगे तबतक मैं उसका प्रकाशन अवश्य करूँगा। मुझे 'नवजीवन' को ग्राहकोंके द्वारा भेजे गये वार्षिक चन्देके बलपर ही चलाना है, विज्ञापनोंका सहारा लेकर नहीं। इसलिए ग्राहक यदि चाहें तो उसका प्रकाशन बन्द हो जा सकता है।

यह बात बिलकुल सच है कि 'नवजीवन' ताजी खबरें छापनेवाला पत्र नहीं, बल्कि इसमें कुछ निश्चित विचारोंका प्रतिपादन किया जाता है। फिर वह इन विचारोंकी कसौटी भी करता है और यह दो तरीकेसे; एक तो समय-समयपर उनपर बहसको स्थान देकर और दूसरे यह मालूम करके कि उन विचारोंका समर्थन करनेवाले लोग कितने हैं।

'नवजीवन' स्वराज्य प्राप्तिके उपायोंकी खोज करता है और उन्हें जनताके सम्मुख प्रस्तुत करता है। इसलिए 'नवजीवन' एक नई वस्तु देता है। दूसरे अखबार जो देते हैं उसे देनेका प्रयत्न 'नवजीवन' नहीं करता। जिसे दूसरे पत्र नहीं देते उसको 'नवजीवन' निरन्तर देता है। इससे उसकी नवीनता अथवा विशिष्टता बनी रहती है। 'नवजीवन' का दूसरे पत्रोंसे स्पर्धा करनेका इरादा नहीं है।

'नवजीवन' में जो रोचकता पहले थी वह आज नहीं है, यह स्पष्ट है। एक समय था जब 'नवजीवन' के लगभग ४०,००० ग्राहक थे; किन्तु आज तो ६,००० ग्राहक