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'नवजीवन' के सम्बन्ध में

ही रह गये हैं। स्वामी आनन्दको लगता है कि उसका कारण यह है कि मैं आजकल नवजीवन के लिए कम और 'यंग इंडिया' के लिए अधिक लिखता हूँ। मैं इस बातको नहीं मानता, क्योंकि इस समय जैसी शोचनीय स्थिति 'नवजीवन' की है वैसी ही 'यंग इंडिया' की भी है। उसकी ग्राहक संख्या कभी ३०,००० थी; किन्तु आज वह भी लगभग 'नवजीवन' के बराबर ही रह गई है।

फिर भी 'नवजीवन' में और अधिक लिखनेकी मेरी कामना तो है ही। यदि ईश्वरकी इच्छा होगी तो मेरी यह कामना पूरी होगी और तब स्वामीकी शंका दूर हो जायेगी।

हकीकत यह है कि मैं इस समय लोगोंके सम्मुख जिस चीजको रख रहा हूँ उससे उन्हें किसी प्रकारकी उत्तेजना या जोश नहीं मिलता। फिर स्वराज्य जल्दी मिलनेकी आशा भी नहीं है। 'नवजीवन' में स्वराज्य प्राप्त करनेके नये-नये साधन प्रस्तुत नहीं किये जाते। प्रत्युत वह उन्हीं उपायोंको नये ढंगसे लोगोंके सम्मुख रखनेका प्रयत्न करता है। 'नवजीवन' का रस उसकी इस नीरसतामें ही है। वह तो स्वराज्यका पोषक है इसलिए जिनका चरखे और इसी प्रकारके अन्य साधनोंमें विश्वास है, वे ही 'नवजीवन' खरीदते हैं। मुझे इतनेसे ही सन्तोष है। जबतक एक निश्चित संख्यामें ग्राहकोंको इससे सन्तोष मिलता रहेगा यह पत्र चलता रहेगा।

जो लोग चरखेको स्वराज्य प्राप्तिका एक सबल साधन मानते हैं और जो उसे भारतकी गरीबीको दूर करनेके लिए रामबाण मानते हैं, वे 'नवजीवन' से नहीं ऊबेंगे। जिनमें धैर्य है, श्रद्धा है, वे इस शस्त्रकी शक्तिको आज नहीं तो कल अवश्य समझ जायेंगे। मुझे इस सम्बन्धमें कोई शंका नहीं है और आशा है कि 'नवजीवन' के पाठकोंको भी नहीं होगी।

भाई महादेव देसाई मेरे दौरेकी दैनन्दिनी देते हैं, इस कारण किसीको शिकायत नहीं होनी चाहिए। मैं भ्रमण अपने मनोरंजनके लिए नहीं, सेवाके लिए करता हूँ। इसलिए पाठकोंको मेरे भ्रमणका परिणाम जाननेका अधिकार है और उसको किसी न किसी रूपमें देना मेरा कर्त्तव्य है। कई बार महादेवकी दैनन्दिनीमें मेरी प्रशंसा रहा करती है। यह दोष तो उसमें है ही। किन्तु लगता है कि यह दोष तो उसके लिए लगभग अनिवार्य हो गया है। मेरा सचिव जो यात्रामें मेरे साथ रहता है और मेरे चाकरकी तरह जुटा रहता है, मेरी आलोचना शायद ही कर सके। वह तो केवल प्रेम या मोहसे प्रेरित होकर ही मेरे साथ घूमता है। उसके लिए वेतनके लोभका तो सवाल हो ही नहीं सकता। उसकी स्तुतिपर मैं अंकुश लगा सकता हूँ, किन्तु उसे बिलकुल बन्द नहीं कर सकता। मेरे बारेमें मेरे निकटतम साथियोंके दिलोंमें जो प्रशंसाका भाव है उससे मैं फूल नहीं उठता; मैं उस स्तुतिको एक बोझ मानता हूँ और उसके योग्य बननेका विशेष प्रयत्न करता हूँ; जबतक मैं इस प्रकारका प्रयत्न करता हूँ, तबतक यह प्रशंसा हानिकर सिद्ध नहीं हो सकती।

फिर भी मैं इस आलोचनाके बारेमें विशेष तौरपर कुछ कहना चाहता हूँ। स्तुतिमें कुछ भय हमेशा रहता है। यदि बेटा बापकी स्तुति निरन्तर करता रहे तो वह अपने बापको भ्रमित करनेके पापका भागी बन जा सकता है। इसलिए वह पुत्र