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१७६. अहिंसाका मर्म

एक सज्जन नीचे लिखे सवाल करते हैं:

१. क्या यह बात सच है कि विदेशी चीनीमें हड्डियाँ तथा खून आदि अपवित्र चीजें डाली जाती हैं?

२. अहिंसा-व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य क्या विदेशी चीनी खा सकता है?

३. जो शख्स अहिंसाकी दृष्टिसे खादी पहनते हैं वे क्या स्वराज्य मिलनके बाद भी खादी पहनते रहेंगे या दूसरे कपड़े पहन सकेंगे?

४. खादी पहनना अहिंसाका सवाल है या राजनीतिका? हिंसाकी दृष्टिसे मिलके कपड़ेमें अधिक हिंसा है या विलायती कपड़ेमें; बने तो वे दोनों ही मशीनके हैं।

५. अहिंसा-व्रतका पालन करनेवाला चाय पी सकता है? यदि नहीं पीनी चाहिए तो उसे पीनेमें हिंसा कहाँ है?

ऐसे सवालोंका जवाब देते हुए मुझे संकोच होता है, क्योंकि ऐसे सवाल अज्ञानसूचक हैं। परन्तु चूँकि कितने ही पाठक ऐसे सवाल किया करते हैं इसलिए उनका निर्णय कर डालना उचित मालम होता है। इन सवालोंके जवाबके निमित्त मैं अहिंसातत्त्वको भी जिस तरह समझता हूँ, स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।

विदेशी चीनीके अन्दर हड्डियाँ आदि नहीं डाली जाती; हाँ, ऐसा सुना है कि उनका उपयोग चीनी साफ करने में किया जाता है। यह माननेका भी कोई कारण नहीं कि ऐसा प्रयोग देशी चीनीके लिए नहीं किया जाता।

इस कारण अहिंसाकी दृष्टिसे शायद दोनों प्रकारकी चीनी त्याज्य है। यदि लेना ही हो तो वह कहाँ-कैसे बनती है, इसकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए। स्वदेशीको प्रोत्साहन देनेके लिए विदेशी चीनीका त्याग करना उचित है। अहिंसाकी एक सूक्ष्म दृष्टिसे तो चीनीका ही त्याग कर देना चाहिए। प्रत्येक प्रक्रियामें हिंसा होती है। इसलिए जिस खाद्यपदार्थपर जितनी कम प्रक्रिया होती हो वह उतना ही अच्छा है। गन्ना चूसना सबसे उत्तम है; गुड़ खाना उससे कम अच्छा है और चीनी खाना उससे भी कम। परन्तु मैं सर्व-साधारणके लिए इतना बारीकीमें जानेकी बिलकुल जरूरत नहीं समझता।

खादी पहननेवाला अहिंसा और स्वराज्य दोनों दृष्टियोंसे स्वराज्य मिलनेके बाद भी खादी ही पहनेगा। स्वराज्य जिन साधनोंके बलपर मिलेगा उन्हीं साधनोंके बलपर वह कायम रह सकेगा। जो राष्ट्र अपनी जरूरतोंके लिए विदेशोंपर मुनहसिर रहता है, या तो वह गुलाम बन जाता है या औरोंको गुलाम बनाता है।

खादी पहनने में अहिंसा, राजनीति और अर्थशास्त्र तीनोंका समावेश हो जाता है। पूर्वोक्त नियमके अनुसार खादीकी प्रक्रियाएँ अपेक्षाकृत कम हैं, इसलिए उसमें हिंसाका समावेश कम है।