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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अब विदेशी या स्वदेशी मिलके कपड़ेका मुकाबला करें तो भले ही दोनोंमें एक ही प्रकारकी मशीनोंका उपयोग होता है, स्वदेशी मिलके कपड़े पहनने में कम हिंसा है। क्योंकि ऐसा करते हुए हमारे हृदयमें अपने देश-भाइयोंके प्रति प्रेम रहता है। परन्तु विदेशी कपड़ेका इस्तेमाल करने में प्रेमका अभाव होता है। यही नहीं, बल्कि बिलकुल स्वच्छन्दता, स्वार्थ या अपनी ही सुख-सुविधाका सवाल रहता है और परमार्थका, प्रेमका अर्थात् अहिंसाका अभाव रहता है।

अहिंसा-व्रतका पालन करनेवाला चाय पी भी सकता है और नहीं भी पी सकता है। चाय [के पौधे] में भी प्राण है। वह निरुपयोगी वस्तु है। इस कारण उसे पीनेसे होनेवाली हिंसा अनिवार्य नहीं है। अतएव उसका त्याग इष्ट है। जहाँ-जहाँ चायके बगीचे है, वहाँ-वहाँ गिरमिटिया लोगोंसे मजूरी कराई जाती है। गिरमिटिया लोगोंके दुःखोंसे हिन्दुस्तान वाकिफ है। जिस पदार्थके उत्पादनमें मजदूरोंको कष्ट मिलता हो वह भी अहिंसाकी दृष्टिसे त्याज्य है। व्यवहारमें हम इतनी छोटी-मोटी बातोंका खयाल नहीं करते। इस कारण जिस तरह दूसरी चीजोंको अहिंसाकी दृष्टिसे निर्दोष समझते हैं उसी तरह चायको भी मान सकते हैं। वैद्यककी दृष्टिसे चायमें गुणकी अपेक्षा दोष अधिक हैं, खासकर तब जबकि वह उबाल ली जाती है।

इन प्रश्नोंसे यह प्रकट होता है कि अहिंसाकी बातें करनेवालोंको अहिंसाके बारेमें कितना कम मालूम है। अहिंसा एक मानसिक स्थिति है। जो इस स्थितिको नहीं पा सका वह चाहे कितनी ही चीजोंको त्याग दे तो भी उसे उसका फल शायद ही मिल सकेगा। रोगी, रोगके कारण अनेक चीजोंसे परहेज करता है। उसके इस त्यागका फल रोग दूर करनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। अकाल पीडितको यदि भोजन न मिले तो इससे उसे उपवासका फल नहीं मिलता। जिसका मन संयमी नहीं है उसकी कृतिमें भले ही संयम दिखाई दे; पर वह संयम नहीं है। खाद्य-अखाद्यके विषयमें अहिंसाका समावेश नहीं होता। अहिंसा क्षत्रियका गुण है। कायर उसका पालन कर ही नहीं सकता। दया तो शूरवीर ही दिखा सकते हैं। जिस कार्यमें जिस अंशतक दया है उस कार्यमें उसी अंशतक अहिंसा हो सकती है। इसलिए दयामें ज्ञानकी आवश्यकता है। अन्ध प्रेमको अहिंसा नहीं कहते। अन्ध प्रेमके अधीन होकर जो माता अपने बालकको अनेक तरहसे लाड़ करती है उसमें अहिंसा नहीं बल्कि अज्ञानजनित हिंसा है। मैं चाहता हूँ कि लोग खाने-पीनेकी मर्यादाओंको ज्यादा महत्त्व न दें और उनका पालन करते हुए भी अहिंसाके विराट् रूपको, उसकी सूक्ष्मताको, उसके मर्मको समझें। रिवाजके अनुसार चलनेवाला पश्चिमका कोई साधु पुरुष गोमांस खानेपर भी रूढ़ि रिवाजके अनुसार गोमांसको छोड़नेवाले एक पाखण्डी क्रूर मनुष्यसे हजार गुना अधिक अहिंसक है। मैं चाहूँगा कि मुझसे प्रश्न पूछनेवाले अपने आपसे यह कहें कि मैं विदेशी चीनी, विदेशी कपड़े और चायको छोड भी दूँ पर अपने पड़ोसीके प्रति दयाभाव न रखूँ, दूसरोंके लड़कोंको अपने लड़केके बराबर न मानूँ, अपने व्यवसायमें सचाईका पाबन्द न बनूँ, अपने नौकरों-चाकरोंको अपना कुटुम्बी मानकर उनके साथ प्रेम-भाव न रखूँ तो मेरी खाने-पीनेकी मर्यादाका कुछ मूल्य नहीं है; मेरी यह मर्यादा आडम्बर-मात्र है और अज्ञानजनित दिखावा है। नरसिंह