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अखिल भारतीय गोरक्षा मण्डल

तरह आपने भारतकी कोटि-कोटि भूखी मानवताको आशा और सान्त्वनाका सन्देश दिया है।"

अस्पृश्यताका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा:

आपकी राजमाता और दीवान महोदयने मुझे विश्वास दिलाया है कि उनकी सहानुभूति सुधारकोंके साथ है, और मैंने अगर उन्हें ठीक समझा है तो मैं जानता हूँ कि इस कलंकको दूर करनेके लिए वे इसी बातका इन्तजार कर रहे हैं कि जनताकी ओरसे सवर्ण हिन्दू लोग इसके पक्षमें जोरदार, सुस्पष्ट और संयमित आवाज उठाएँ। यदि हिन्दू लोग अपने धर्मके प्रति सच्चे हैं और स्वयंको अपने धर्मकी गरिमाका रक्षक मानते हैं, और यदि अस्पृश्यताके विरुद्ध उनकी भावना उतनी ही तीन है जितनी कि मेरी है तो वे तबतक चैनसे नहीं बैठेंगे जबतक कि राजमाता और दीवान महोदयको इस बातका यकीन नहीं दिला देते कि त्रावणकोरकी सारी जनता इस सुधारकी माँग करती है।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, १६-३-१९२५

१७९. अखिल भारतीय गोरक्षा मण्डल

[१६ मार्च, १९२५]

पाठकोंको याद होगा कि पिछले दिसम्बरमें बेलगाँवमें जो अनेक परिषदें हुई थीं, उनमें एक गोरक्षा परिषद् भी थी। अनिच्छा होते हुए भी प्रेमके वश होकर मैंने उसका अध्यक्ष बनना स्वीकार किया था। मेरी यह मान्यता है कि इस युगमें हिन्दू धर्मके माननेवालोंके लिए गोरक्षा महत्त्वपूर्ण और एक आवश्यक कर्तव्य है। मेरी यह भी नम्र मान्यता है कि मैं अपने तरीकोंसे इस कार्यको वर्षोसे कर रहा हूँ। इस बातको तो सारा हिन्दुस्तान जानता है कि मैं जो जानबूझकर मुसलमानोंके साथ मैत्रीभाव बढ़ा रहा हूँ उसके पीछे गोरक्षा एक प्रबल कारण है। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मसलमानोंके हाथसे गायको बचाना गोरक्षाका सबसे बड़ा अंग है। उसका सबसे बड़ा अंग तो हिन्दुओंसे गायकी रक्षा करना ही है। गोरक्षाकी मेरी व्याख्या में गाय-बैलोंपर किये जानेवाले जुल्मोंसे उनकी रक्षा करना भी शामिल है।

लेकिन इस महान् कार्यमें अभीतक मैंने खुद बहुत भाग नहीं लिया है। ऐसा कार्य करनेकी योग्यता प्राप्त करनेके लिए मैंने तपश्चर्या की है, लेकिन पूरी योग्यता अभी प्राप्त नहीं हुई है। इसलिए अध्यक्ष बनने में मुझे संकोच होता था, फिर भी मैंने अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। परिषद्में एक प्रस्ताव यह भी पास हुआ था कि एक स्थायी मण्डल स्थापित किया जाये। इस कार्यमें भी तो मेरा योग देना जरूरी

१. कन्या कुमारीकी यात्राके उल्लेखसे पता लगता है कि यह लेख गांधीजीने १६ मार्च को लिखा होगा।