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१८४. भाषण: अलवाईके अद्वैताश्रममें

[१८ मार्च, १९२५]

आपने मुझे जो सुन्दर मानपत्र दिया है और जिसे एक अन्त्यज छात्रने पढ़ा है, मैं उसके लिए आपका आभारी हूँ। खेद है कि मैं इसका उत्तर संस्कृतमें नहीं दे सकता। फिर भी, यदि मैं संस्कृतका विद्वान् होता तो भी इसका उत्तर संस्कृतमें न देता क्योंकि हम हिन्दू आज संस्कृतके अध्ययनके प्रति उदासीन हो गये हैं। इसलिए सामान्य वर्गकी जनतासे संस्कृत समझनेकी आशा नहीं की जा सकती। किन्तु मैं यहाँके संस्कृतमय वातावरणकी अनुकूलताका खयाल करके हिन्दीमें बोल सकता तो कदाचित् मैं हिन्दीमें बोलता। किन्तु आप उसे भी नहीं समझ पाते हैं। यह हमारी दुःखद स्थितिका सूचक है। मैं चाहता हूँ कि आश्रमके संचालक ऐसी व्यवस्था करें जिससे आश्रमका प्रत्येक छात्र हिन्दी समझ सके। यह जरूरी है कि हम अपनी मर्यादाओंको समझ लें। आज हमारे लिए अपने जीवनको इतना संस्कृतमय बना देना कि हम अपना समस्त व्यवहार संस्कृतमें चला सकें, अपनी सामर्थ्य से बाहर है। किन्तु हमारे लिए हिन्दीमें व्यवहार चलाना कठिन नहीं है।

आपका आदर्श 'एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर' से है। चूँकि मैंने इस बारेमें नारायणगुरु स्वामीसे बातचीत की थी और आपने अपने मानपत्रमें इसका उल्लेख सबसे पहले किया है; इसलिए मैं भी इसकी चर्चा करनेके लिए बाध्य हूँ। मुझे लगता है कि इस आदर्शमें उल्लिखित उद्देश्यको प्राप्त करना भी हमारे सामर्थ्यके बाहर है। मैं 'एक ईश्वर' के सिद्धान्तको समझ सकता हूँ। हम इस एक ईश्वरकी उपासना करोड़ों रूपोंमें करते हैं, फिर भी हमारी भक्ति उसतक पहुँचती है। किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि जबतक मानव जातिका अस्तित्व रहेगा तबतक विविध मतमतान्तरों और धर्मोका अस्तित्व भी रहेगा, क्योंकि यह मानव-जाति एकमति नहीं, अनेक मति है। यदि हम प्रकृतिको देखें तो हमें वह भी बेहद विविधतासे भरी दिखाई देगी। ईश्वर इस विविधताके द्वारा सहज ही बहुरूप बन जाता है। मुझे लगता है कि मानव-जातिके इतिहास में ऐसी अवस्था आनेकी आशा रखना प्रकृति-नियमके विरुद्ध ही होगा कि जब यह समस्त जगत एक धर्मावलम्बी या एक मतावलम्बी हो सके। मैंने जो भी थोड़ा-सा श्रवण, मनन और निदिध्यासन किया है उसके फलस्वरूप मेरा मत तो यह बना है कि मानव-जातिका काम, वर्णाश्रम धर्मके बिना चल ही नहीं सकता। इसलिए मुझे विविध मत-मतान्तर और धर्म भी अनिवार्य लगते हैं। इस स्थितिमें हमारा लक्ष्य होना चाहिए सहिष्णुता। यदि हम सब एक मत हो जायेंगे तो इस उदात्त गुणको अवकाश ही कहाँ मिलेगा? किन्तु सब लोगोंका एकमत होना व्यर्थकी आशा है। इसलिए हम एक दूसरेके मतके प्रति सहिष्णु बनें, यही एक बात सम्भव


१. १९-३-१९२५ के हिन्दूके अनुसार।