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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जान पड़ती है। मेरे मुसलमान मित्रोंका मत है कि मैं तो जन्मजात मूर्तिपूजक हूँ और अवतारवाद और पुनर्जन्ममें विश्वास करता हूँ; इसलिए मुझे अपने भीतर मूर्तिपूजा, अवतारवाद और पुनर्जन्ममें आस्था न रखनेवाले मुसलमानोंके प्रति सहिष्णुताका भाव विकसित करना चाहिए। मैं अवतारोंमें विश्वास रखता हूँ, अतः यह नहीं मानता कि ईस ही एकमात्र ईश्वर अथवा ईश्वरका पुत्र है। परन्तु मझ अपने ईसाई मित्रोंका ईसाको ईश्वर-रूप मानना सहन करना चाहिए और इसी प्रकार मेरे ईसाई और मुसलमान मित्रोंको भी मेरा कन्याकुमारी और जगन्नाथको प्रणिपात करना सहन करना चाहिए। एक-दूसरेके धर्मके प्रति सहिष्णुताका यह भाव मैं अपने ही इस युगमें आता हुआ देख रहा हूँ, क्योंकि अहिंसा धर्मके मूलमें यह भाव निहित ही है। यही भाव सत्य धर्मके मूलमें भी निहित है। जैसे ईश्वर सहस्र रूप है, वैसा ही सहस्र रूप सत्य भी है। अत: सत्य क्या है, इस सम्बन्धमें मेरा मत ही सत्य है और अन्य सबका असत्य, मैं यह दुराग्रह नहीं कर सकता। इसीलिए मुझे लगता है कि एक दूसरेके प्रति सहिष्णुता और प्रेमभाव रखनेका युग समीप आता जाता है। इसलिए यदि मैं श्री नारायणगुरु स्वामीसे अपने इस सहिष्णुताके आदर्शको नहीं मनवा सकता तो उनके उपर्युक्त आदर्शकी अपनी व्याख्या करके ही सन्तोष कर लूँगा।

किन्तु हम अब इस सूक्ष्म विवेचनको छोड़कर स्थूल बातोंपर आते हैं। यदि हम अपने सम्मुख 'एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर' का आदर्श नहीं रख सकते तो अपने देशके कल्याणार्थ एक नित्य नियमित कार्यका आदर्श तो रख ही सकते हैं। हम खादी पहनना सीखकर देशके अत्यन्त निर्धन वर्गसे एकरूपता कब स्थापित करेंगे? हम इस एक मन्त्रकी साधना तो कर ही सकते हैं कि निर्धनोंका और हमारा हित समान होना चाहिए। यदि हम विश्व प्रेमकी बातें करने के बजाय अहमदाबाद, जापान या इंग्लैंडका बना कैलिको कपड़ा पहनना बन्द करके अपने प्रान्तके इन भाइयों और बहनोंके द्वारा कात-बुनकर तैयार किया गया कपड़ा पहनकर उसमें निहित सहज प्रेमको अनुभव कर सकेंगे तो इतना पर्याप्त है। मुझे श्री नारायण गुरु स्वामीने विश्वास दिलाया है कि वे स्वयं सूत कातेंगे और अपने खादी न पहन कर आनेवाले अनुयायियोंसे मिलना बन्द कर देंगे।

हमें अहिंसा-धर्म और प्रेम-धर्मका पालन एक दूसरे मामले में भी करना है। हम अपने भाइयोंको अस्पृश्य मानते हैं और दुरदुराते हैं, हमें अपने देशको इस पापसे मुक्त करना ही होगा। एक सवर्ण हिन्दू मेरे पास आये थे। उन्होंने मुझे बताया कि एजवाहा अपनेसे निम्न वर्गके अन्त्यजोंको अस्पृश्य मानते हैं। यह दोष दूर किया जाना चाहिए। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि एजवाहा और पुलाया मद्यपान करना त्याग दें तो अस्पृश्यताकी समस्या स्वत: ही हल हो जायेगी। मैं इस तर्कसे अस्पृश्यताका समर्थन करना उचित नहीं मानता। किन्तु हमें उनकी इस सलाहका लाभ उठाकर जो-कुछ करना चाहिए वह तो करना ही होगा। हम इसका यह उत्तर अवश्य ही नहीं दे सकते कि सवर्ण हिन्दू भी लुक-छिपकर मद्यपान करते हैं। हम तो अपने दोष देखें और दूर करें, हमारे लिए इतना पर्याप्त है। आशा है, इस संस्कृतमय वातावरणमें आपने अभी संक्षेपमें जो-कुछ कहा है, उसे अपने हृदयमें बिठा लेंगे और