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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कानून नहीं है तो मैं आशा करता हूँ कि ऐसा कानून बना दिया जायेगा जिससे इन रिक्शाओंमें एकसे अधिक सवारी न बैठाई जा सकेगी। यदि मेरे हाथमें सत्ता होती तो मैं रिक्शाओंको बन्द कर देता। लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरी यह आशा केवल कोरी आशा ही रहेगी। लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि जो लोग इन रिक्शाओंको चलाते हैं उनकी कड़ी डाक्टरी परीक्षा की जाये और यह देखा जाये कि वे इस भारी कामको करनेके योग्य हैं या नहीं?

सहभोज

एक सज्जन मुझे लिखते हैं: "क्या विभिन्न जातियोंके बच्चोंको जो एक ही छात्रावासमें रहते हों, एक ही भोजन-कक्षमें साथ-साथ बैठाकर भोजन कराना चाहिए?" यह प्रश्न ठीक तरहसे नहीं रखा गया, लेकिन जैसा यह प्रश्न है उसका उत्तर तो यही होगा कि बच्चोंको साथ-साथ बैठाकर भोजन नहीं कराया जा सकता। किन्तु यदि यह कहा जाये कि किसी भी छात्रावासका मालिक ऐसे नियम बना सकता है जिनके अनुसार उसमें रहनेवाले लड़कोंके लिए एक साथ बैठकर भोजन करना आवश्यक हो, तो यह माँग भी उतनी ही अनुचित होगी जितनी एक साथ बैठकर भोजन करनेकी शर्त किये बिना भरती किये गये बच्चोंको दूसरी जातियोंके बच्चोंके साथ बैठकर भोजन करनेके लिए विवश करना। जबतक इसके विरुद्ध कोई नियम नहीं बनाया जाता तबतक मेरा खयाल है, यही माना जायेगा कि अलग-अलग भोजनकी व्यवस्थाके सामान्य नियम लागू रहेंगे। एक साथ बैठकर भोजन करनेका यह प्रश्न एक टेढ़ा प्रश्न है और मेरी रायमें इस बारे में कोई निश्चित नियम नहीं बनाये जा सकते। मुझे स्वयं इस बातका विश्वास नहीं है कि एक साथ बैठकर भोजन करना कोई आवश्यक सुधार है; किन्तु साथ ही मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इस प्रतिबन्धको बिलकुल तोड़ देने की ओर प्रवृत्ति बढ़ रही है। मैं इस प्रतिबन्धके पक्षमें और विपक्षमें प्रमाण दे सकता हूँ। मैं कोई उतावली करना नहीं चाहता। यदि कोई आदमी किसी दूसरेके साथ बैठकर खाना नहीं खाता तो मैं इसे पाप नहीं समझता और यदि कोई एक साथ बैठकर खाना खानेका समर्थन करता है और खाना खाता है तो मैं इसे भी पाप नहीं मानता। लेकिन यदि इसमें किसीको आपत्ति हो तो उसकी उपेक्षा करके इस प्रतिबन्धको तोड़नेके प्रयत्नका मैं विरोध करूँगा। बल्कि मैं तो उनके द्वारा उठाई गई आपत्तियोंका आदर करूँगा।

अवधके किसान


फैजाबादके श्री मणिलाल डाक्टरने मेरे पास प्रकाशनार्थ यह पत्र भेजा है:

मैं हजारों किसानोंके प्रार्थना करनेपर गयासे फैजाबाद लाया गया हूँ। बिहारमें--चम्पारनमें मेरा भ्रम टूट चुका है। खेतोंमें काम करनेवाले मजदूरोंके लिए भारतमें कोई सुखकी सेज नहीं है। कुलियोंको असम, कलकत्ता, कानपुर, अहमदाबाद, बर्मा और दूर-दूरके उपनिवेश अपनी ओर खींच सकते हैं, इसमें आश्चर्यकी बात नहीं है। अवधकी हालत तो और भी खराब है।