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यूरोपीय सभ्यताके खिलाफ लगाये गये आरोपोंमें कुछ दम जरूर है, लेकिन हमें यही नहीं मानना चाहिए कि भारत सौन्दर्य, शान्ति और सौजन्यकी भूमि है और यहाँके लोग ईश्वर प्रेममें मग्न रहते हैं। भारतमें कुछ ऐसी भयानक चीजें हैं कि जिनका नाम भी नहीं लेना चाहिए। यहाँ ऐसी गन्दी बस्तियाँ हैं, जैसी यूरोपमें कहीं नहीं मिलेंगी। यदि हमारी सभ्यता आध्यात्मिक जीवनके लिए खतरनाक है तो भारतीय सभ्यता उसके लिए घातक है। आदमीके मस्तिष्कको निद्रालु होने दिया जाये तो वह नष्ट हो जायेगा।

यह सोचना अशिष्टता नहीं है कि यदि गांधी हमारी सभ्यतामें जो बुराइयाँ हैं उन्हें नहीं बल्कि जो अच्छाइयाँ हैं उन्हें जाननेकी शिष्टता-मात्र दिखाये तो हम उसकी सहायता कर सकते हैं।

एक निन्दात्मक लेख

ऐसा माना गया है कि जिस लेखसे ये उद्धरण लिये गये हैं वे मेरे तथाकथित उद्देश्यके आलोचनात्मक विवेचनके लिए लिखा गया है और उसका शीर्षक है "एक असाधारण व्यक्ति---क्या वह पागल है या महात्मा?" मैंने अकसर कहा है कि सत्यकी खोजके पीछे पागल हुए व्यक्तिको ही असाधारण कहना ठीक नहीं है और मैं असाधारण मानव होनेका दावा नहीं करता। जिस अर्थमें प्रत्येक ईमानदार आदमीको पागल होना चाहिए उस अर्थमें, सचमुच मैं पागल हूँ। मैंने महात्माकी पदवीको अस्वीकार किया है, क्योंकि मैं अपनी सीमाओंको और अपूर्णताओंको जानता हूँ। मैं भारतका सेवक होनेका और उसके जरिये मानवताका सेवक होनेका दावा करता हूँ।

उक्त लेखका लेखक ईमानदार है, लेकिन साथ ही अनभिज्ञ भी है। फिर भी वह ऐसे विश्वासके साथ लिखता है जो आश्चर्यजनक है। तरस इस बातपर आता है कि आधुनिक साहित्यमें इस प्रकारका लेख लिखना कोई नई बात नहीं है। यदि समकालीन पुरुषों और महिलाओंके बारेमें जो स्पष्ट ही असत्य है उसे जनताके सामने रखा जा सकता है तो यह सोचकर मन काँप जाता है कि उन व्यक्तियोंके मरने के वर्षों बाद वह असत्य किस प्रकार विकृत हो कर लोगोंके सामने आयेगा।

अब हम देखते हैं कि इस लेखके लेखकके हाथों सत्यकी कितनी छीछालेदर हुई है। लेखक कहता है, "यूरोपीय सभ्यताके प्रति अपने रोषके कारण वह सम्पूर्ण विज्ञान और उसकी सम्पूर्ण संस्कृतिकी निन्दा करनेकी चरम सीमातक पहुँच गया है।" यद्यपि मैंने निःसन्देह यूरोपीय सभ्यताके खिलाफ जोरदार शब्दोंमें कहा और लिखा है, फिर भी मुझे याद नहीं है कि मैंने कभी "सम्पूर्ण विज्ञान और उसकी सम्पूर्ण संस्कृति" की निन्दा की हो। इस अपमानजनक लेखके खिलाफ मेरा सारा जीवन एक जीवन्त उदाहरण है। इसके बादका प्रत्येक वाक्य सत्यके बिलकुल विपरीत है। लेखकने यह निष्कर्ष कहाँसे निकाला है, यह मैं नहीं जानता। कि मैं स्कूलके अध्यापकों और इंजीनियरोंको बिलकुल समाप्त कर देना चाहता हूँ कोई भी व्यक्ति जिसे मेरे बारेमें जरा भी जानकारी है, जानता है कि मैं शारीरिक अकर्मण्यतासे घृणा करता हूँ।