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हिन्दू रामको धर्मावतार कहते हैं। रामने रावणको मारा। क्या यह अनुचित कार्य था? रामने बालिको मारा और बालिके विरोध करनेपर रामने कहा:

अनुजवधू भगिनी सुतनारी।

सुन सठ ये कन्या सम चारी॥

इनहिं कुदृष्टि विलोकहिं जोई।

तेहि बधे कछु पाप न होई॥

यहाँपर यह सिद्धान्त कि 'मारना, हत्या करना नहीं है' धर्मके साक्षात् अवतारके मुँहसे कहलाया गया है।

उसके बाद हम भगवान् कृष्णके समयमें आयें। उस कालकी हमारे पास 'भगवद्गीता' है। आखिर अर्जुनके जो-जो सम्बन्धी हैं, उन्हें वह मारनेके लिए तैयार नहीं। भगवान् कृष्ण उसे लड़ने और मारनेके लिए विवश करते हैं। इसलिए यहाँ अहिंसाका सिद्धान्त ताकमें रख दिया गया है।

इसलिए मनुष्यको यह पूछना ही पड़ता है कि अहिंसापर अमल करने के लिए क्या कोई सीमा है। एक लड़कीपर बलात्कार हो रहा है। क्या यह उसके लिए सही नहीं है कि वह उस राक्षसको मारकर अपनेको उसके पंजेसे छुड़ा ले? क्या उसे अहिंसाका पालन करना चाहिए?

मछली पकड़ना हिंसा है, सब्जीके रूपमें उपयोग करने के लिए पौधोंको उखाड़ना हिंसा है। बीमारीके कीटाणुओंको मारनेके लिए कीटाणुनाशक औषधियोंका उपयोग करना हिंसा है, फिर किस प्रकार जीवित रहा जाये?

एक ब्राह्मण

यदि पिता उस भैंसका दूध न निकालते तो दुनियाकी कोई हानि नहीं होती। तुलसीदासने रामके मुँहसे बहुत-सी बातें कहलाई हैं, जो मेरी समझमें नहीं आतीं। बालिका सारा उपाख्यान भी इसी प्रकार है। जो पंक्तियाँ रामके मुँहसे कहलाई गई है उनके शाब्दिक अर्थको माननेवाला आदमी फाँसीपर भले ही न चढ़ाया जाये, वह मसीबतमें तो पड़ ही जायेगा। 'रामायण' या 'महाभारत'में किसी नायकसे जोकुछ कहलाया गया है मैं उसे शाब्दिक अर्थमें नहीं लेता और न मैं यह समझता कि ये पुस्तकें ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। वे विविध ढंगसे हमें मूलभूत सत्यका साक्षात्कार कराती हैं। जैसा इन दो महाकाव्योंमें वर्णित है मैं यह नहीं मानता कि राम और कृष्ण दोषोंसे परे हैं। वे अपने युगके विचारों और महत्वाकांक्षाओंको व्यक्त करते हैं। केवल एक दोषाक्षम व्यक्ति ही दोषाक्षम व्यक्तियोंका सही चित्रण कर सकता है। इसलिए आदमीको केवल इन महान रचनाओं में निहित भावनाको ही पथप्रदर्शकके रूपमें ग्रहण करना चाहिए। शब्द तो आदमीका गला घोंट देंगे और सारी


१. किष्किन्धा काण्ड, तुलसीकृत रामचरित मानस।