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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रगतिको बन्द कर देंगे। जहाँतक 'गीता'का सम्बन्ध है मैं इसे ऐतिहासिक विवरण नहीं मानता। यह आध्यात्मिक सत्यको हृदयमें बैठानेके लिए भौतिक उदाहरणका आश्रय लेती है। यह चचेरे भाइयोंके बीच होनेवाली लड़ाईका नहीं बल्कि हममें रहनेवाली दो प्रकृतियों--अच्छाई और बुराई--के बीच होनेवाली लड़ाईका वर्णन है। मैं 'ब्राह्मण' को सुझाव देता हूँ कि वह उन घटनाओंको जो उसने उद्धृत की है, एक ओर रखकर स्वयं अहिंसाके सिद्धान्तका परीक्षण करे। 'अहिंसा परमोधर्मः' यह जीवनके सर्वोच्च सत्योंमें से है। उसके पालनसे तनिक भी चूकना पतन मानना चाहिए। हो सकता है यूक्लिड द्वारा परिभाषित सीधी लकीरें खींची न जा सकें। किन्तु कार्य न होनेसे परिभाषाको नहीं बदला जा सकता। यदि इस कसौटीपर कसा जाये तो पौधोंको उखाड़ना भी एक बुराई है। और कौन ऐसा है जो सुन्दर गुलाबके फूलको तोड़ने में पीड़ा अनुभव नहीं करता? हम घासपातको उखाड़ने में पीड़ा महसूस नहीं करते किन्तु इससे सिद्धान्तपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इससे मालूम होता है कि हम यह नहीं जानते कि घासपातका प्रकृतिमें क्या स्थान है। किसी भी तरहका आघात पहुँचाना अहिंसाके सिद्धान्तका उल्लंघन करना है। अहिंसाके पूर्ण उपयोगसे जरूर जीवन असम्भव हो जाता है। तब सत्यको ही कायम रहने दिया जाये, चाहे हम सब न रहें। प्राचीन शिक्षक इस सिद्धान्तको आखिरी तर्कसिद्ध सीमातक ले गये हैं और उन्होंने लिखा है कि भौतिक जीवन एक पाप है, एक उलझन है। इसलिए मोक्ष भौतिक जीवनसे ऊपरकी स्थिति है, जिसमें शरीरका अस्तित्व नहीं होता। उसमें न तो खाना होता है, न पीना और इसीलिए न भैंसका दूध निकालना होता है और न घासपातका उखाड़ना ही। हो सकता है कि हमारे लिए सत्यको ग्रहण करना या उसका मूल्यांकन करना कठिन हो। बिलकुल उसके अनुसार आचरण करना असम्भव हो सकता है; और है भी। फिर भी मुझे सन्देह नहीं कि यही सत्य है। हम इसके अनुरूप अपने जीवनको ढालनेका भरसक प्रयत्न करें यही ठीक है। सच्चे ज्ञानका मतलब है, आधी विजय। जिस सीमातक हम इस महान् सिद्धान्तको अपने वास्तविक जीवनमें उतारते है उसी सीमातक वह जीने और प्रेम करने योग्य बनता है। तब हम शरीरके शाश्वत गुलाम बने रहनेकी अपेक्षा शरीरको ही अपना गुलाम बना कर रखते हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १९-३-१९२५