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कोहाटकी जाँच

'हमसाया' (रक्षित) मानते हैं। इसलिए हिन्दुओंने जितना अधिक डटकर मुकाबला किया उतना ही अधिक उस भीड़का क्रोध बढ़ता गया।

इसलिए इस घटनाके लिए कौन कितना जिम्मेदार है इसका निर्णय करते समय मेरी दृष्टि में पहले गोली किसने चलाई, इस प्रश्नका कुछ अधिक महत्त्व नहीं है। इसमें शक नहीं कि यदि हिन्दुओंने आत्मरक्षाके लिए भी उनका सामना न किया होता अथवा उन्होंने पहले गोली न चलाई होती--यदि मान लें कि उन्होंने चलाई ही थी--तो मुसलमानोंका उपद्रव जल्दी ही शान्त हो गया होता। लेकिन जिन हिन्दुओं के पास हथियार थे और जो उनको थोड़ा-बहुत चलाना भी जानते थे उनसे यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वे मुसलमानोंका सामना न करते। मुसलमान गवाहोंको इस बातमें भी शंका है कि ९ तारीखको कुछ हिन्दू मारे गये या जख्मी हुए। लेकिन मैं यह निश्चय मानता हूँ कि उस रोज मुसलमानोंके हाथ कुछ हिन्दू जरूर मारे गये या जख्मी हुए थे। हताहतोंकी कुल संख्या देना मुश्किल है। मुझे यह लिखते समय खुशी है कि कुछ मुसलमानोंने हिन्दुओंके दोस्त बनकर उन्हें आश्रय दिया था।

यह तो आमतौरपर स्वीकार कर लिया गया है कि १० सितम्बरको मुसलमानों के क्रोधकी कुछ सीमा न थी। निःसन्देह हिन्दुओंके हाथों बहुतसे मुसलमानोंके मारे जानेकी अफवाहें बढ़ा-चढ़ाकर फैलाई गईं और आसपासके कबाइली मुसलमान दीवारें तोड़कर या दूसरे रास्तोंसे कोहाटमें घुस आये। सारे शहरमें कत्ल और लूट शुरू हो गई, पुलिसने भी इसमें खुलकर हिस्सा लिया और अधिकारी जो इसे रोक सकते थे, खड़े तमाशा देखते रहे। अगर हिन्दुओंको उनके घरोंसे हटाकर छावनीमें न पहुँचाया गया होता तो उनमें से शायद ही कोई बच पाता। इस बातपर भी बड़ा जोर दिया जा रहा है कि मुसलमानोंका भी नुकसान हुआ है। कबाइली मुसलमानोंपर तो जब एक मरतबा लूटनेका भूत सवार हो गया फिर उन्होंने यह नहीं देखा कि यह हिन्दूका माल है या मुसलमानका। हालाँकि यह बात सच है, फिर भी मैं यह नहीं मानता कि हिन्दुओंके मुकाबलेमें मुसलमानोंको कुछ भी नुकसान पहुँचा है। और मैं सादर यह भी कहना चाहता हूँ कि खिलाफतके कुछ स्वयंसेवकोंने, जिनका कर्त्तव्य ऐसे समयमें हिन्दुओंको अपना भाई मानकर उनकी रक्षा करना था, अपना फर्ज अदा नहीं किया। वे सिर्फ लूट में ही शामिल नहीं हुए बल्कि लोगोंको शुरूमें उकसाने में भी उन्होंने हिस्सा लिया।

लेकिन सबसे ज्यादा बुरी बात तो अभी कहनी बाकी ही है। झगड़ेके दिनोंमें मन्दिरोंको भी, जिनमें एक गुरुद्वारा भी शामिल था, नुकसान पहुंचाया गया था और मूर्तियाँ तोड़ दी गई थीं। बहुतसे लोगोंने जबरन धर्मपरिवर्तन या कहनेको धर्मपरिवर्तन किया अर्थात् अपनी जान बचाने के लिए इस्लाम अपनानेका दिखावा किया। दो

१. २६-३-१९२५ के यंग इंडियामें प्रकाशित वक्तव्यमें शौकत अलीने लिखा था: जहाँतक दंगोंके दिनों में हुए इन तथाकथित बलात् धर्मपरिवर्तनोंका सवाल है, मेरी स्थिति स्पष्ट है। मझे बलात् सख्त नफरत है। ऐसा करना इस्लामकी भावनाके खिलाफ है। यदि ऐसा किया गया हो तो वह घोर निन्दाके लायक है; पर सचमुचमें ऐसा हुआ है इसका मुझे विश्वास नहीं है।

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