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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दुओंको सिर्फ इसलिए बुरी तरहसे कत्ल किया गया था क्योंकि उन्होंने (एकने निश्चय ही, दूसरेने अनुमानतः) इस्लामको स्वीकार करनेसे इनकार कर दिया था। ऐसे धर्मपरिवर्तनका एक मुसलमान गवाह इस प्रकार वर्णन करता है:

हिन्दू मुसलमानोंके पास आये और उनसे अपनी शिखा काट लेने और जनेऊ तोड़ डालनेके लिए कहा। अथवा जिन मुसलमानोंके पास आश्रय पानेके लिए गये उन्होंने उनसे कहा, "यदि तुम अपने को मुसलमान घोषित कर दो और हिन्दू धर्मके चिह्न निकाल फेंको तो तुम्हारी रक्षा की जायेगी।"

यदि हिन्दुओंके कहनेपर विश्वास किया जाये तो सत्य इससे भी अधिक कटु है। इन मुसलमान मित्रके साथ न्याय करने के लिए मुझे यहाँ यह कह देना चाहिए कि उन्होंने ऐसे कार्योंको धर्मपरिवर्तन नहीं माना। इसके बारेमें कमसे-कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह हिन्दू-मुसलमान दोनोंके लिए शर्मकी बात है। मुसलमानोंने यदि उन नामर्द हिन्दुओंको हिम्मत दी होती और हिन्दू बने रहने और हिन्दू धर्मके चिह्न रखनेपर भी उनकी रक्षा की होती तभी मैं उन्हें काबिले-तारीफ मानता। हिन्दुओंने भी यदि सिर्फ जिन्दा रहने के लिए, चाहे वह ऊपरी दिखावेके लिए ही क्यों न हो, अपने धर्मका परित्याग करने के बजाय मर जाना अधिक पसन्द किया होता तो सिर्फ हिन्दू ही नहीं सारी मानव-जातिकी भावी पीढ़ियाँ उन्हें वीर और शहीद मानकर पूजतीं और उनपर गर्व करतीं।

मुझे अब सरकारके बारेमें भी कुछ कहना है। स्थानीय अधिकारियोंने अपने कर्त्तव्यके प्रति शर्मनाक उदासीनता, अयोग्यता और कमजोरी दिखाई है।

उस अपमानजनक कविताके निकाल देनेके बाद पत्रिकाका जलाना भूल थी।

श्री जीवनदासको गिरफ्तार कर लेना ठीक था लेकिन उन्हें ११ तारीखके पहले छोड़ देना एक भूल थी।

छोड़ देने के बाद उन्हें फिर गिरफ्तार करना एक जुर्म था।

६ सितम्बरको और फिर ९ तारीखको हिन्दुओंकी इस चेतावनीपर कि उनकी जान व माल खतरेमें है, ध्यान न देना जुर्म था।

आखिरकार जब दंगा हुआ उस समय उनकी रक्षा न करना भी बड़ा जुर्म था।

आश्रितोंको वहाँसे हटाने के बाद उनके खाने की व्यवस्था न करना और रावलपिंडी पहुँचाने के बाद उनको अपने ही भरोसे छोड़ देना एक अमानवीय काम था।

भारत सरकारने इस मामलेकी, और इससे सम्बन्धित अधिकारियों-की जाँचके लिए एक निष्पक्ष आयोग नियुक्त न करके अपने कर्त्तव्यके प्रति बड़ी लापरवाही दिखाई है।

अब रही भविष्यकी बात। मुझे अफसोस है कि वह भी कुछ अधिक उजला नहीं दिखाई देता। यह बड़े दुःखकी बात है कि मुस्लिम कार्यवाहक समितिने हमारी जाँचके समय अपना प्रतिनिधि नहीं भेजा। जिस समझौतेका जिक्र किया गया है वह समझौता दोनों कौमोंके खिलाफ मुकदमे चलानेकी धमकी देकर करवाया गया है। यह समझमें नहीं आता कि ऐसी शक्तिशाली सरकारने ऐसा समझौता करानेमें भाग