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५.भाषण: बारडोलीमें


१७ जनवरी, १९२५

यह नारियल, सूत और पैसा आदि लेकर मुझे सुख नहीं होता। मैं इसे ले लेता हूँ, बस इतना ही समझिए। किन्तु मैं तो सच्चे आदमीकी खोजमें हूँ। मैंने वराडमें एक बड़ी अच्छी पाठशाला देखी। वहाँ बहुतसे अच्छे-अच्छे शिक्षक हैं। किन्तु विद्यापीठके इस प्रस्तावके बाद कि अन्त्यज बालकोंको शालामें प्रवेश दिया जाना चाहिए, उस राष्ट्रीय शालामें से बहुतसे अभिभावकोंने अपने बालक हटा लिये हैं। मैं आपको यह भी कह देना चाहता हूँ कि बादमें राष्ट्रीय शाला और गाँवकी शालाको एक करनेका प्रस्ताव भी पास हुआ है। किन्तु पहले अपने कर्त्तव्यको भूल जाना और फिर उसे याद करना इसमें क्या सार है? क्या हम सन् १९२१ में नाटक कर रहे थे?[१] उन दिनों हमारा विश्वास था कि अस्पृश्यता-निवारणके बिना यदि स्वराज्य मिलता है, तो भी वह निकम्मा है; खादीके बिना स्वराज्य मिलता है तो वह निकम्मा है। किन्तु आज देखता हूँ कि बारडोलीमें श्रद्धा नहीं बची है, हिम्मत नहीं बची। सच्ची हिम्मत तो वही है कि सबके हार मान लेनेके बाद जो पाँच-पच्चीस आदमी बच रहें वे अन्ततक उठाये गये कामको पूरा करें। बारडोलीने न खादीका कार्यक्रम पूरा किया और न अस्पृश्यताका। और दुबलोंका भी बुरा हाल किया। मैं तो चाहता हूँ कि जो भूल हो गई है, बारडोली आज भी उसे सुधार ले। मैं बारडोलीके प्रति अपनी आशा का त्याग करनेवाला नहीं हूँ। बहनोंकी आँखोंमें जो प्रेम और चमक दिखाई देती थी, वह आज भी जैसी की तैसी है। वे सूत, पैसा आदि जो-कुछ लेकर आई हैं, अपनेआप लेकर आई है, किसीके कहे बिना लाई हैं, ऐसा मैंने सुना है। शक्ति तो पुरुष ही गँवा बैठे हैं। भाई रायचुराको[२] यह कहनेके बजाय कि गुजरातने पंजाब, बंगाल इत्यादिकी लाज रख ली, कहना यह चाहिए कि गुजरातने लाज छोड़ दी। गुजरातके लिए आज भी मौका है। मैं आज जेलमें जानेके लिए नहीं कहता। आज तो मैं इतना ही कहता हूँ कि जो हमारा स्वाभाविक धर्म है और जिसे पालना अत्यन्त आवश्यक है, हम उसका पालन करें। मुझे यहाँ आनेकी धुन नहीं लगी थी। मैं जो यहाँ आया हूँ, सो अपना धर्म समझकर आया हूँ। मैं निराश नहीं हूँ, किन्तु उदास जरूर हुआ हूँ। कारण यह है कि आप आज भी आत्मविश्वासको खोकर बैठे हुए हैं। किन्तु समय चला नहीं गया है। बहिष्कारकी बात तो एक क्षणिक बात थी। उसे जाने दीजिये। जो बातें केवल स्वराज्य-प्राप्तिके लिए साधन-मात्र थीं, उन्हें मैंने फिलहाल त्याग दिया है। फिर भी आपको उन सब बातोंका पालन तो करना ही चाहिए जो आत्मशुद्धिके साधन हैं--अर्थात् खादी, अस्पृश्यता-निवारण और हिन्दू-मुस्लिम एकता। आप इनका

 
  1. संकेत असहयोग आन्दोलनकी ओर है।
  2. स्थानीय कवि कदाचित् उन्होंने उस दिन सभामें इस आशयकी कविता पढ़ी थी।