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काठियावाड़के संस्मरण

आचरण कीजिए। स्वराज्य मिलता है या नहीं, इसकी चिन्ता किये बिना इन सबका धर्म मानकर पालन कीजिए; नहीं तो सर्वनाश हुए बिना नहीं रहेगा। अस्पृश्यता-निवारणके बिना हिन्दू धर्मका नाश हो जायेगा और यदि खादीको व्यापक नहीं बनाया गया, तो देशमें ऐसी भुखमरी फैलेगी कि हम कंकाल-मात्र बच रहेंगे और हमारा मांस कौए-कुत्ते खा जायेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८-२-१९२५

६. काठियावाड़के संस्मरण

प्रेम-सागरमें

मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, वहाँ सभी जगह मुझे असाधारण प्रेम दिखाई देता है। इसलिए अब मझे उसमें कुछ अनोखापन नहीं लगता। मैं तो जहाँ जाता हूँ, वहाँ काठियावाड़के ही दर्शन करता हूँ। फिर भी काठियावाड़के प्रेमका प्रभाव कुछ जुदा ही पड़ता है। या तो मुझे काठियावाड़में प्रेमकी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती अथवा मुझे काठियावाड़की ओरसे प्रेमके प्रदर्शनकी इच्छा ही नहीं होती। मेरी भावना क्या है, मैं इसे समझ ही नहीं सकता। काठियावाड़में प्रेमका प्रदर्शन किस लिए? जो "प्रेम-पूर्तिके लिए विनय" की अपेक्षा करता है, वह कैसा स्नेह?

अतिरिक्त आशा

शायद ऐसा भी हो सकता है कि मैं काठियावाड़में कुछ अधिक आशा रखता हूँ और शायद इसलिए मुझे उसके बाह्य प्रेमसे सन्तोष ही नहीं होता। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं प्रेमके इस प्रदर्शनसे मन ही मन असन्तुष्ट हो रहा है। यदि कोई माँ विधिका पालन करनेकी धुनमें बच्चेको रोटी परोसना भूल जाये और उसके लिए चौका लगाने बैठ जाये, तो जिस तरह बच्चेको उपेक्षाका भान ही होगा, कहीं मुझे भी तो वैसा नहीं लग रहा है? क्या मैं अपने व्यवहारसे इस बातको स्पष्ट नहीं कर रहा हूँ कि प्रेम-प्रदर्शन छोड़कर यदि आप लोग मुझे वह वस्तु दे देंगे, जिसे माँगनेके लिए मैं लाज-शर्म छोड़कर आ गया हूँ, तो मुझे अधिक सन्तोष होगा। बात ऐसी ही है।

बात ऐसी हो या न हो, मैं भावनगरमें[१] इस भावसे आकर बैठ गया कि यह मेरे पिताकी भूमि है और हवाई-महल बनाने लगा। मेरा भी सपना निष्फल नहीं हुआ। स्वागत समितिने तमाम प्रस्ताव पेश करनेकी तैयारी कर रखी थी। मैंने तो उन्हें लगभग अमान्य ही कर दिया। मैंने सुझाव दिया कि इन प्रस्तावोंको वापस ले लिया जाना चाहिए। किन्तु यह बात सभीके गले नहीं उतरी, फिर भी समितिने मेरी वह सलाह स्वीकार कर ली।

 
  1. काठियावाड़ राजनीतिक परिषद्के लिए। परिषद् ८ और ९ जनवरी, १९२५ को गाँधीजीकी अध्यक्षतामें हुई थी। देखिए खण्ड २५।