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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अब प्रश्न दो रहते हैं। जहाँ शराब दी जाती हो, क्या वहाँ मेरे-जैसे लोगोंका जाना उचित है? यदि जाना उचित भी हो तो क्या शराबकी बोतलको एकसे लेकर दूसरेको देना उचित है? जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, दोनों प्रश्नोंका मेरा उत्तर यह है कि मेरे लिए वहाँ जाना और शराबकी बोतल पहुँचाना---दोनों ही बातें उचित थीं। लेकिन किसी दूसरेके लिए यही बात अनुचित हो सकती है। ऐसे मामलोंमें राजमार्ग क्या हो सकता है सो मुझे नहीं मालूम। यदि कोई राजमार्ग हो तो वह यही हो सकता है कि हम ऐसे आयोजनों और दावतोंमें बिलकुल न जायें। यदि हम शराबपर बन्धन लगाते हैं तो माँसपर बन्धन क्यों न लगायें? यदि हम माँसपर बन्धन लगायें तो फिर अन्य अभक्ष्य पदार्थोंपर बन्धन क्यों न लगायें? इसलिए यदि हम कुछ परिस्थितियोंमें ऐसे समारोहोंमें जाना अनिष्टकर मानते हों, तो मुझे सर्वोत्तम मार्ग यही जान पड़ता है कि हम किसी भी समारोहमें न जायें।

तब मैं वहाँ क्यों गया था? मैं वहाँ इसीलिए गया था कि मैं ऐसे समारोहोंमें बरसोंसे जा रहा हूँ और इस अवसरपर न जानेका मेरे लिए कोई विशेष कारण नहीं था। मैं स्वयं ऐसे समारोहोंमें कुछ खाता नहीं, खाता ही हूँ तो केवल फल। मैं इससे अपने मनको समझा सकता हूँ कि जिस प्रकार मैं इनमें भाग लेता हूँ उसमें कुछ अनुचित नहीं है। मैं जानता हूँ कि मेरे इस प्रकार भाग लेनेसे कुछ लोगोंने मद्यपान और कुछ लोगोंने माँसाहार छोड़ दिया है। किन्तु इन समारोहोंमें जानेके पक्षमें यह तर्क नहीं दिया जा सकता। मैं यह बताता हूँ कि मैंने स्वयं अपने मनको कैसे समझाया। यदि जैसा मैं करता हूँ वैसा ही सब करें तो मुझे लेशमात्र भी चिन्ता न हो। किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरा अनुकरण करके उसमें दूसरे लोग उपस्थित होंगे, इतना ही नहीं बल्कि भय यह भी है कि वे खाद्य-अखाद्य और पेय-अपेयका विवेक भी छोड़ बैठेंगे। मैं यह भी जानता हूँ कि ऐसा हुआ है। अब तीसरा प्रश्न यह उठता है कि तब हम इस भयसे कबतक अपने ऊपर रोक लगाये रखें? ऐसे प्रश्न सदा ही धर्म संकट उपस्थित करते हैं। और उनका निर्णय सबको अपने-अपने विवेकके अनुसार कर लेना चाहिए। इस सम्बन्धमें मेरी सलाह यह है कि जब कोई ऐसे मामलोंमें किसी निश्चित मार्गका निर्णय न कर सके और मेरे व्यवहारसे विरुद्ध व्यवहार करना उचित मालूम होनेके बावजूद वह मेरी सलाहपर चलना चाहता हो तो मेरा अपना व्यवहार चाहे कैसा भी क्यों न हो, उसे जैसा मैं कहूँ वैसा व्यवहार करना चाहिए। मैं जैसा करता हूँ, वैसा करने में जोखिम है। इसलिए जहाँ मद्य और मांस परोसे जाते हैं वहाँ मैं भले ही जाता होऊँ, लोगोंके लिए वहाँ न जाना ही उचित है।

मेरे खादीके आग्रहमें और मद्यपानके उदाहरणमें कोई सम्बन्ध नहीं है। जिन जगहोंमें खादी नहीं पहनी जाती वहाँ मैं नहीं जाता होऊँ सो बात भी नहीं है। जिन सभा संस्थाओंपर मेरा अंकुश होता है, उनमें अथवा जहाँ मेरी खादी सम्बन्धी दृढ़ताका अर्थ विपरीत नहीं समझा जा सकता, वहाँ मैं खादीके व्यवहारके सम्बन्धमें दृढ़ रहता हूँ। राजकोटके दरबारमें सभी लोग खादीधारी नहीं थे; फिर भी मैं वहाँ गया था। विवाह और ऐसे ही अन्य उत्सवोंमें जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इस