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पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको
चि० कुँवरजी
द्वारा
पारेख गोकलदास त्रिभुवन
मोरवी, काठियावाड़


मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ६७८) से।

सौजन्य: नवजीवन ट्रस्ट

१९९. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

फाल्गुन कृष्ण १३ [२२ मार्च, १९२५]

भाई घनश्यामदासजी,

आपके दो पत्र मीले हैं।

मुस्लीम युनिवरसिटीके बारेमें आपने मुझको निश्चित कर दीया है। मैं यह तो हरगीज नहिं चाहता हुं कि आपके दामसे आप भाइयोंमें कुछ भी विखवाद हो। आपका नाम में प्रकट नहिं करूंगा।

आपने जो जमीन छोटा नागपुरमें ली है उसको नौकरोंके मृत्युके कारण छोड़नेकी सलाह मैं नहीं दुंगा। धातुरूप और जमीन रूप द्रव्य मैं बड़ा फरक नहीं है। द्रव्यके कारण झगड़ा होना, खुन भी होना अनिवार्य है। आपके धर्म संकटका एक ही इलाज है। मीलकीयत छोड़ देना। यह तो आप इस समय करन नहिं चाहते हैं। हां, एक बात तो मैंने कही है। क्योंकि मिलकीयत फसादोंका कारण बनती है औ [र] हमारे पास अकर्त्तव्य भी करवाती है उसे छोड़ देना और जबतक उसको हम सम्पूर्णतया छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं तबतक उसका व्यय पारमार्थिक भावसे--ट्रस्टीकी हैसियतसे--करना और अपने भागोंके लिये उसका कमसे-कम व्यय करना। एक बात और संभवित है। जो सज्जन झगड़ा करता है उसको मीलनेकी कुछ कोशीश हुई है? उसकी अशांतिका कारण क्या है? क्या उसकी मूर्खता भले हो परन्तु उसकी जमीन पानीके दामसे तो नहि मीली है? दुष्ट पुरुष भी अपनी मीलकत फेंक देना नहि चाहता है। यह तो दूसरा तात्विक प्रश्न मैंने छेड़ा है।

आपकी धर्मपत्नीका स्वास्थ्य कुछ ठीक है क्या?

मैं मद्रास २४ तारीखको छोडुंगा।

आपका,

मोहनदास गांधी

मूल पत्र: (सी० डब्ल्यू० ६१०७) से।

सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला

१.२१ फरवरी, १९२५ को लिखे अपने पत्रमें गांधीजीने श्री बिड़लासे ५०,००० रुपये अलीगढ़ यूनिवर्सिटीको दान देनेका अनुरोध किया था।