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भाषण: मद्रासमें

बनाना है तो हमारे रोजानाके कामकाजमें उसका मुख्य स्थान होना चाहिए। जिस समाज-सेवामें सरपरस्तीका भाव हो, वह सेवा नहीं होती।

आप जिस महान कार्य में लगे हए हैं, मैं उसके लिए आपको हार्दिक बधाई देता है। हाँ, मुझे लगता है कि वह अपने-आपमें अधूरा है और उसमें बहुत सुधार किया जा सकता है। मेरी रायमें तो इस देशकी दशाको देखते हुए, कोई भी सेवा तबतक पूर्ण नहीं है जबतक उसकी नींव चरखे और खद्दरपर न रखी गई हो। आप चाहें तो इसपर हँस सकते हैं; पर समय आ रहा है जब यह बात समाज-सेवाका आधारभूत सूत्र बन जायेगी कि कोई भी समाज-सेवी तबतक समाज-सेवी नहीं माना जाये जबतक वह ऊपरसे नीचेतक केवल खद्दर न पहने हो और कातना न जानता हो। मैं आपको इसका कारण बतलाता हूँ। समाजके सबसे निचले वर्गके लोगोंकी सेवाका काम शुरू करके आपने उचित ही किया है। तब क्या इसके सम्बन्धमें मैं आपको एक तथ्यकी, एक ऐसे तथ्यकी याद दिलाऊँ जिसकी सचाईमें शंका नहीं की जा सकती? वह तथ्य यह है कि हमारे समाजके सबसे निचले वर्गके लोग शहरोंमें नहीं, देहातोंमें रहते हैं। मैं आपको एक दूसरा तथ्य भी बता दूँ, जिसे मेरे जैसे मनुष्यने नहीं इतिहासज्ञोंने प्रस्तुत किया है। तथ्य यह है कि भारतमें जनसंख्याका दसवाँ भाग आधे पेट खाकर रहता है। साथमें यह भी स्वीकार किया जाता है कि उनको आधे पेट इसलिए रहना पड़ता है कि सालमें लगभग चार महीने उनके पास कोई काम नहीं रहता। इसलिए एक ऐसा सार्वत्रिक धन्धा होना चाहिए जिसे देशका हर आदमी अपना सके। चरखा चलाना ही ऐसा एकमात्र धन्धा है।

मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप इसपर व्यक्तिकी दृष्टिसे नहीं, समूचे राष्ट्रकी दृष्टिसे विचार करें। तब आपके सामने तुरन्त स्पष्ट हो जायेगा कि इससे राष्ट्रको केवल कुछ लाख रुपयोंकी नहीं, बल्कि करीब १२० करोड़ रुपयोंकी बचत होगी। जिस सेवाका पुरस्कार उसके साथ जुड़ा हुआ रहता है, ऐसी असन्दिग्ध यही एक सेवा है। यदि हम सरपरस्तीका भाव लेकर जनताके बीच सेवा करने जायें, तो यह सेवा असम्भव है। हम जब स्वयं उनके बीच खद्दर पहनकर जायें, तभी उनसे खद्दर पहननेके लिए कह सकते हैं और तभी उनकी ऐसी सेवा कर सकते हैं। यदि हम खुद आज ही कताई शुरू नहीं करते तो जनता चरखेकी ओर आकर्षित नहीं होगी। और चूँकि हमने चरखा चलानेकी कला भुला दी है, इसलिए हम जबतक चरखे-जैसे सीधे-सादे यन्त्रकी सभी बारीकियोंको समझ नहीं लेते और चरखेकी सँभाल और मरम्मतमें सिद्धहस्त नहीं बन जाते, तबतक मनुष्यके लिए जनतातक चरखेका सन्देश पहुँचाना असम्भव है। केवल यही एक सेवा ऐसी है जिसमें हमारा एक भी प्रयत्न बेकार नहीं जाता। इसमें निराशाकी गुंजाइश ही नहीं है। जैसे किसान द्वारा उपजाई हुई छोटीसे-छोटी चीज भी देशकी सम्पदाकी अभिवृद्धि करती है, वैसे ही देशकी खातिर काता हुआ एक-एक गज सूत देशकी सम्पदाकी अभिवृद्धि करता है। उससे चाहे एक पाई भी मिले, वह करोड़ोंकी तादादमें भूखों मरती जनताकी जेबमें ही पहुँचती है। इसीलिए मैं विनम्रतापूर्वक आशा करता हूँ कि आप (श्री टी० वी० शेषगिरि अय्यरकी ओर