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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रुपयेकी हुई। इस प्रकार मैं देखता हूँ कि बिक्री बढ़नेके बजाय घटती जा रही है। मैंने यह भी सुना है कि जब मैं जेलमें था उस समय पूरे देशमें खादीकी जितनी खपत थी उतनी अब, मेरी रिहाईके बाद, नहीं रही है। यह बात ऐसी है जिससे मुझे शर्म मालम होती है; किन्तु मैं इसे समझ सकता हूँ। जबतक मैं जेलमें था तबतक लोगोंको मेरी चिन्ता थी और वे मानते थे कि मुझे मेरी अवधिसे पूर्व मुक्त करानेका उपाय खादीका प्रचार है। वे यह भी मानते थे कि यदि मैं मुक्त हो जाऊँगा तो तुरन्त स्वराज्य दिला दूँगा। किन्तु मेरे लिए दुःख करना तो निरर्थक था। मैं जेलमें दुखी नहीं था, न तनसे और न मनसे। मुझे तो जेल में रहना प्रिय था। मेरी अब भी मान्यता है कि मैं जेलमें रहकर जितनी सेवा कर रहा था, उतनी सेवा बाहर निकलनेपर मुझसे हो पाती है या नहीं, इसमें शंका है। दूसरी बात विचारणीय है। यह सम्भव था कि खादीके पूर्ण प्रचारके कारण मुझे अवधिसे पूर्व छोड़ दिया जाता। किन्तु मैं मुक्त होते ही स्वराज्य दिला दूँगा, यह विचार लोगोंके लिए लज्जाजनक है। स्वराज्य दिलानेवाला मैं कौन हूँ? स्वराज्य तो प्राप्त करना है; उसे कौन किसे दे सकता है? मेरे मुक्त होनेपर स्वराज्य दूर जाता दिखाई देता है, किन्तु मेरे खयालसे तो वह पास आ रहा है। मैं अब भी यह मानता हूँ कि हम जितने गज सूत अधिक कातेंगे और जितने गज खद्दर अधिक पहनेंगे व तैयार करेंगे वह उतना ही अधिक पास आयेगा।

किन्तु इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं है कि हम अपने दूसरे कर्तव्य छोड़ दें। पर इसका अर्थ यह तो है कि हमें दूसरे कर्त्तव्योंका पालन करनेपर भी खादीके बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता और चरखके बिना खादी नहीं मिल सकती।

इसी कारण जब मुझे यह खबर मिलती है कि बम्बई में खादीकी खपत कम हो रही है तब मुझे दःख होता है। कालबादेवीवाले दूसरे खादी भण्डारकी बिक्री इससे कुछ अधिक है। किन्तु इस समय उसकी पिछले सालकी बिक्रीके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। क्योंकि तब वह रहेगा भी या नहीं यही निश्चित नहीं था। अब उसकी बुनियादको मजबूत बना दिया गया है। फिर भी अगर दोनों भण्डारोंकी कुल बिक्री प्रतिमास ३०,००० रुपयेकी होती है तो वह बम्बई-जैसे शहर के लिए कुछ भी नहीं है ऐसे दस-पाँच खादी भण्डार बम्बईमें चलें तो भी आश्चर्यकी कोई बात नहीं। बम्बईमें कोई सड़क ऐसी नहीं है जिसमें विदेशी कपड़ेकी दूकान न हो। एक सड़क पर तो पग-पगपर ऐसी दूकानें हैं। वहाँ खादीकी दूकान पराई---विदेशी-जैसी---लगती है और विदेशी वस्त्रकी दुकान स्वदेशी---अपनी---जैसी लगती है। इसपर भी इन्हीं दूकानोंके मालिक और उनके ग्राहक स्वराज्यकी आशा करते हैं। किन्तु यह स्वराज्य कैसा होगा? वह स्वराज्यके नामपर विदेशी राज्य अथवा स्वार्थका राज्य तो न होगा? करोड़ोंके व्यापारमें गरीबोंका स्थान क्या होगा? ऐसे शासनतन्त्रमें गरीबोंको राहत मिलनेकी क्या आशा हो सकती है? जबतक खादीका पूरा प्रचार नहीं होता तबतक अथवा जबतक विदेशी कपड़ेका पूर्ण बहिष्कार नहीं होता तबतक सब स्वराज्यकी भावनाको समझ सकते हैं यह मैं असम्भव मानता हूँ। जिसके दाँत नहीं हैं, वह चबानेका आनन्द क्या जाने? जिसके जीभ नहीं है वह बोलनेका अर्थ क्या समझे? जिसे अपने देशके गरीबोंके काते और बुने कपड़ेको पहनने में संकोच होता है, वह गरीबोंकी