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काठियावाड़के संस्मरण

सदस्योंके अधिकारके विषय में प्रश्न उठाया और मुझसे अध्यक्ष होनेके नाते निर्णयकी माँग की। कताईसे सम्बन्धित प्रस्ताव अपनी विरोधी धाराओंको रद्द कर देता है और इसलिए प्रश्न उठता है कि आजन्म सदस्योंका हक रहा या गया? अर्थात् प्रस्तावके अनुसार यदि वे नहीं कातते है और दूसरोंसे भी नहीं कतवाते हैं, तो क्या शुल्क देकर आजन्म सदस्य होनेके उनके हक समाप्त हो जाते हैं--प्रस्तावके अनुसार हो जाने चाहिए। प्रश्न अटपटा था, किन्तु कोई निर्णय दिये बिना छुटकारा नहीं था। मैंने निर्णय दिया कि आजन्म सदस्य चाहे कातें चाहे न कातें, वे आजन्म सदस्य तो बने ही रह सकते हैं। कायदेके मताबिक समिति ऐसे अधिकार रद्द करने में सक्षम है या नहीं, मैंने इस विषयमें कोई निर्णय नहीं दिया। मुझे इतना ही तय करके बताना था कि समितिका प्रस्ताव आजन्म सदस्योंके अधिकारोंको प्रभावित करता है या नहीं और मैंने इस प्रश्नके उत्तरमें आजन्म सदस्योंक पक्षमें अपना निर्णय दिया।

उनसे प्रार्थना

फिर भी मैं उनसे यह प्रार्थना करूँगा कि वे अपने अधिकारसे लाभ न उठायें, बल्कि परिषद्के मन्त्रीको पत्र लिखकर सूचित करें कि उन्होंने स्वेच्छासे परिषद्का प्रस्ताव स्वीकार करके अपना हक छोड़ दिया है। मैं जानता हूँ कि अधिकांश सदस्य ऐसा कोई प्रश्न उठाना भी नहीं चाहते थे। उनमें से बहुतसे लोग कातनेके लिए तैयार भी हैं। इसलिए जब परिषद्ने कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं, तब मेरी नम्र सम्मतिमें उसके आजन्म सदस्योंका अपने अधिकारपर जोर देकर प्रस्तावका सम्मान न करना अनुचित है।

सर प्रभाशंकर पट्टणी

सर प्रभाशंकर पट्टणीका कातनेकी प्रतिज्ञा लेना, मेरी समझमें परिषद्का एक बड़ा काम है। उन्होंने जिन शब्दोंमें शपथंकी घोषणा की, वे अतिशय गम्भीर थे। सदस्योंपर उसका प्रभाव भी गहरा हुआ। प्रतिज्ञाका मूल कारण इस प्रकार था: बेलगाँव कांग्रेसके[१] समाप्त होनेके बाद अनेक सज्जनोंने यह निश्चय किया था कि वे पहली मार्चके पहले-पहले अमुक संख्यामें कातनेवाले सदस्य बनायेंगे। मैंने स्वयं ऐसे १०० सदस्य बनानेका उत्तरदायित्व लिया था और साथ ही यह भी कहा था कि मैं ऐसे दो व्यक्तियोंको भी कातनेवाले सदस्य बनाऊँगा जो कातनेका विरोध करनेवाले माने जाते हैं। मुझे काठियावाड़में तो आना ही था, इसलिए मैंने सोचा था कि ये दो नाम मैं काठियावाड़में ही खोज निकालूँगा। कातनेके विरोधी सदस्योंमें मैने पट्टणी साहबका नाम सोचा था। जब कातनेसे सम्बन्धित प्रस्ताव विषय-समितिने स्वीकार किया, तब मैने १०० नामोंवाली बात कही और यह वचन भी दिया कि मैं पट्टणी साहबको कातने पर राजी करूँगा। मेरा यह कहना था कि पट्टणी साहब खड़े हो गये और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि तबीयतके अच्छे रहते हुए वे भोजनसे पहले हमेशा नियमके साथ कमसेकम आधा घंटा अवश्य कातेंगे। उन्होंने एक शर्त यह अवश्य रखी कि मैं उन्हें कातना

 
  1. दिसम्बर, १९२४ में।